Thursday, April 25, 2013

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हरियाणा सरकार के आंकड़े भी बताते हैं किसानों को हो रहा भारी नुक्सान
पवन सौन्टी/कुरुक्षेत्र
जन संचार माध्यम ढिंढोरा पीट-पीट कर थक चुके हैं कि देश का पेट पालने वाला धरतीपुत्र खुद भूखों मरने को मजबूर है, लेकिन सराकर में बैठे उसके कथित पैरोकार इस बात को उतनी ही मजबूती से दबाने का प्रयास करते हैं। आज भी देश में किसान की पैरवी करने वाला कोई नजर नहीं आता। यही कारण है कि सराकरों के आंकड़े बताते हैं कि किसानों की फसल उत्पादन में भारी लागत आ रही है, बावजूद उसके देश की राजधानी में बैठे उनके नीति निर्धारक किसान का गला दबाने की फिराक में ही रहते हैं। 
इसका सीधा प्रभाव रहता है दो तिहाई आबादी पर चाहे वह किसान है या खेतीहर मजदूर। ताजा मौसम यानि गेहूं पर ही ध्यान दिया जाए तो हरियाणा सरकार का कृषि विभाग इस वर्ष गेहूं की प्रति क्विंटल लागत 1613 रूपये आंक चुका है। इसी को आधार बनाकर केंद्र सरकार से हरियाणा सरकार ने मूल्य मांगा था 1650 रूपये प्रति क्विंटल। मजेदार बात यह रही कि केंद्र सराकार की ओर से गठित कृषि जिनस मूल्य निर्धारण आयोग ने इसकी मांग की 1285 रूपये प्रति क्विंटल और कथित किसान हितैषी केंद्र सरकार ने मूल्य दिया मात्र 1350 रूपये प्रति क्विंटल।
अब देखिये कि हरियाणा सरकार के आंकलन को आधार बनाकर किसान को कितना घाटा हुआ। सरकार के द्वारा आंकलित लागत मूल्य पर ही बेचारे किसान को 263 रूपये प्रति क्विंटल का घाटा हो गया। यह घाटा मात्र इतना ही नहीं है, अपितु प्रति एकड़ पर तो वास्तव में यह बहुत भारी घाटा बनता है। अगर प्रति एकड़ आंकलन करें तो 20 क्विंटल प्रति एकड़ उत्पादन पर यह घाटा 5260 रूपये बैठता है। इस वर्ष उत्पादन में भारी कमी के कारण यह घाटा बढक़र 12410 रूपये प्रति एकड़ हो गया है, क्यों कि इस बार किसानों को औसतन 5 क्विंटल प्रति एकड़ उत्पादन कम पड़ रहा है। अकेले गेहूं में ही नहीं अपितु कमोबेश सभी फसलों में किसानों को जान बूझकर सरकारों द्वारा चपत लगाई जा रही है। उधर किसान का सबसे बढ़ा हितैषी होने का दावा करने वाले हरियाणा के मुख्यमंत्री चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी मात्र केंद्र से उच्च दामों की मांग रख कर ही पल्ला झाड़ लेते हैं। उसके बाद किसानों के चीखने चिल्लाने को इस कदर नजर अंदाज किया जाता है कि उनकी बोनस की मांग को भी अनसुना कर दिया जाता है।

            एक व्यापारी भी स्वंय अपने उत्पाद की लागत का आंकलन करके लाभकारी मूल्य तय करता है, लेकिन किसान के लिये उसके उलट सराकर नुक्सान दायक मूल्य तय करती है। यह मामला कोई दो-चार सालों से चला नहीं आ रहा अपितु दशकों पुरानी यह दर्दनाक कथा हर वर्ष नए सिरे से फिर लिखी जाती है। अगर हरियाणा सरकार द्वारा वैबसाईट पर 1995-96 से लेकर अब तक उपलब्ध आंकड़ों पर नजर डालें तो बाजरा और कपास को छोडक़र यह घाटे का कारोबार लगातार आज तक चला आ रहा है। बाजरा में तो केवल इसी वर्ष हरियाणा सरकार के आंकलन 1014 रूपये प्रति क्विं टल से बढक़र केंद्र सरकार ने 1175 रूपये प्रति क्विंटल भाव दिया है। कपास में लाभकारी मूल्य का सिलसिला 2006-2007 से देखने को मिलता है। कपास के लिये इस वर्ष का अनुमानित मूल्य 3242 रूपये प्रति क्विंटल है जबकि केंद्र द्वारा इसका मूल्य 3900 रूपये प्रति क्विंटल दिया गया है। इनके अलावा गेहूं, चना, जौं, तेलिय फसलें, धान व मक्का आदि सभी फसलों के हरियाणा सरकार द्वारा अनुमानित भावों व केंद्र द्वारा दिये गए भावों में जमीन आसमान का अंतर रहा है। इतना कुछ होने के बावजूद चाहे किसी भी दल की सरकार हरियाणा में रही हो, किसी ने भी इस ओर साकारात्मक कदम नहीं उठाए। आज के दौर में तो हरियाणा सरकार खुद को किसान हितैषी होने के दावों को लेकर प्रचार के लिये तो अरबों रूपया पानी की तरह बहा सकती है, लेकिन उस किसान को वास्तव में अपनी ओर से उसकी जिनस पर बोनस तक नहीं देती।
लागत निर्धारण में किसान की मजदूरी भी मात्र 179 रूपये
हरियाणा सरकार के कृषि विभाग द्वारा लागत निर्धारण हेतू बनाए गए आंकड़ों में भी किसान की मेहनत का मोल सही नहीं आंका जाता। मनरेगा के तहत हरियाणा में मजदूरी 214 रूपये प्रति दिन है जबकि कृषि विभाग लागत मूल्य निधारित करते समय 2012-13 के लिये किसान की मजदूरी को मात्र 179 रूपये प्रति दिन मान कर चल रहा है। भारतीय किसान यूनियन के प्रैस सचिव राकेश कुमार द्वारा सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई सूचना पर उपलब्ध करवाए गए आंकड़ों के अनुसार अगर गत वर्ष की धान लागत का आंकलन देखें तो बहुत ही खामियां नजर आती हैं। उसके बावजूद सरकार ने धान की फसल पर 1566 रूपये प्रति क्विंटल लागत मानी थी और केंद्र ने दिया था मात्र 1250 रूपये प्रति क्विंटल का भाव। अगर इन आंकड़ों पर गहनता से नजर दौड़ाई जाऐ तो इन आंकड़ों में किसान की लागत का बहुत ही कम मूल्यांकन किया गया है। धान रोपाई की मजदूरी प्रति हैक्टेयर मात्र 1790 रूपये आंकी गई है जबकि गत वर्ष प्रति एकड़ मजदूरी 1600 से 2000 रूपये तक थी। जोकि हैक्टेयर के हिसाब से सरकारी आंकलन का ढाई गुणा तक बनती है। खेत का किराया धान के लिये 22000 रूपये प्रति हैक्टेयर आंका गया है जबकि पिछले कई वर्षों से प्रति वर्ष औसतन जमीन का ठेका 75000 रूपये प्रति हैक्टेयर तक जा रहा है जिसमेेंं से आधे वक्त यानि 6 महीने की धान की फसल होती है। यही नहीं हास्यप्रद बात देखिये कि मंडी में अनाज ले जाने यानि ट्रांसपोर्टेशन चार्जेज के नाम पर मात्र 25 रूपये प्रति हैक्टेयर आंके गए हैं जबकि अपना ट्रैक्टर ही मंडी तक जाने में 300 रूपये का डीजल पीता है। अगर किराये पर ढुलाई करवाई जाए तो 600 रूपये से कम दाम पर कोई ट्राली वाला किसान की फसल को 5-7 किलोमीटर दूर की मंडी में नहीं ले जाता। इन आंकड़ों में ऐसे बहुत से घाटे होने के बावजूद भी आज तक किसान को हरियाणा सरकार के आंकलन के अनुरूप ही दाम नहीं मिल पा रहे तो आम आदमी भी अंदाजा लगा सकता है कि किसान किन कठिन परिस्थितियों में गुजारा करके दुनिया का पेट पाल रहा है। धन्य है भारत माँ का लाडला बेटा धरतीपुत्र जिसकी हाड तोड़ मेहनत से सबके चुल्हे तो जलतें हैं, लेकिन उसके चुल्हे को जलता रखने के लिये कोई प्रयास नहीं किया जाता।
सराकरी आंकड़ों की कहानी उन्ही की जुबानी
हरियाणा सरकार के कृषि विभाग द्वारा लागत मूल्य आंकलन व केंद्र द्वारा मूल्य निर्धारण के बीच जमीन आसमान का अंतर दिखाते हैं सरकारी आंकड़े। जी हां, 1955-56 में हरियाणा में गेहूं की अनुमानित लागत 455 रूपये थी जबकि मूल्य मिला था 380 रूपये प्रति क्विंटल। इसी वर्ष चने की अनुमानित लागत थी 875 रूपये जबकि मूल्य मिला था 700 रूपये प्रति क्विंटल। जौं की अनुमानित लागत थी 399 रूपये जबकि मूल्य मिला था 295 रूपये प्रति क्विंटल। इसी प्रकार 1996-97 में धान की अनुमानित लागत थी 490 रूपये प्रति क्विंटल जबकि मूल्य मिला था 380-415 रूपये प्रति क्विंटल। इसी वर्ष बाजरा की अनुमानित लागत थी 400 रूपये जबकि मूल्य मिला था 310 रूपये प्रति क्विंटल। यह तो कुछ उदाहरण मात्र हैं। आज तक किसान के साथ इसी प्रकार लूटपाट होती आई है। सरकारें आंकलन तो करवाती हैं, लेकिन फिर आंख बंद करके किसान व उसके साथी रहे खेतीहर मजदूर के शोषण का खाका तैयार करने बैठती हैं ताकि देश की दो तिहाई आबाद सत्ता में बैठे इन भूखे लुटेरों के बराबर न आ खड़ी हो।

Tuesday, April 23, 2013

पीरों पैगम्बरों की धरती रहा है शाहाबाद ----------वाधवान




शाहाबाद को रुहानियत से नवाज़ा है सूफी संतों ने
 पीर भीखन शाह ने की थी दशम गुरु के अवतरण की भविष्यवाणी
शाहाबाद मारकंडा  (सुरेंद्रपाल वधावन)
प्राचीन कसबा शाहाबाद अपने आप में एक गौरवमयी इतिहास समेटे है। मघ्यकाल के कई सूफी संतों ने इस नगरी को रुहानियत से नवाजा है। इन सूफी पीर-फकीरों में शेख अब्दुल कद्दूस साहिब को एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल है वह मुहम्मद चिश्ती साबिर के शिष्य थे। अब्दुल कद्दूस साहिब और संत खैरुशाह ने शाहाबाद में सूफी़ मत  का प्रचार किया ।
इतिहासकारों का मानना है कि 1491से 1525 ई. तक शेख़् अब्दुल शाहाबाद में रहे। शेख अब्दुल साहिब फारसी के विद्वान होने के साथ-साथ हिंदी में भी अच्छी काव्य रचना कर लेते थे। हिंदी में उनका एक काव्य अलखवाणी भी प्रकाशित हुआ। शेख अब्दुल हालांकि मूल रुप में नारनौल के निवासी थे लेकिन 34 वर्ष तक शाहाबाद में रहे थे। इसी नगर में एक सूफी संत खैरुशाह भी रहते थे जिनका निधन 1616 ई. में हुआ था।यहीं के सूफी संत शेख मुआली का शुमार मध्य युग के प्रमुख संतो में किया जाता है।
शाहाबाद के निकट ठसका गांव में पीर भीखन शाह नामक एक सूफी संत रहते थे । वह सय्यद थे और अचानक एक दिन पूर्व दिशा में जब लोगों ने उन्हें सजदा करते देखा तो इसका कारण पूछा। यह बात जि़क्र योग्य है कि मुस्लिम सदा पश्चिम की और सजदा करते हैं जिस दिशा में मक्का मदीना हैं। तब पीर भीखनशाह ने रहस्योद्घाटन किया के पूर्व दिशा में स्थित पटना में एक युग पुरुष ने अवतार लिया है। तदोपरांत पीर भीखनशाह अपने शिष्यों सहित पटना की और रवाना हुए जहां दशम गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म हुआ था। पीरजी ने आशीर्वाद दिया और भविष्यवाणी की कि यह अवतारी बालक हिंदू और मुस्लमान दोनों समुदायों को समदृष्टि से देखेगा और इसका यश और कीर्ति युगों युगांतरों तक कायम रहेगा।
पीर भीखन शाह ने  हिंदी में दोहों की रचना की थी। आज उन्हीं के नाम से ही ठसका गांव को ठसकामीराजी के नाम से पुकारा जाता जाता है।  साहित्यकार डा.नरेश ने पाकिस्तान में जा कर सूफी संत मीरा भीखजी की रचनाओं को ढूंढने का प्रयास किया है।
 सूफी संतों की कर्मस्थली और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण यहां 52 मस्जिदें थीं जिनका समय समय पर निर्माण किया गया था । पंजाब वक्फ बोर्ड के रेकार्ड में 20 मस्जिदों का जक्र मिलता है ।
नोगजा पीर इब्र्राहीम साहिब का मज़ार:-  शाहाबाद से 6 किलोमीटर दूर नोगजा पीर इब्र्राहीम साहिब का मज़ार सर्वधर्म सद्भाव व श्रद्धा का केंद्र है। पीर साहिब के बारे में कहा जाता हे कि  वह रुहानियत से सराबोर होने के साथ साथ वक्त के भी बड़े पाबंद थे। उनके मज़ार पर घडिय़ां चढ़ाने की अनूठी परंपरा है। वाहन चालक यहां  से गुजरते वक्त अकीदत के तौर पर यहां घडिय़ां नजराने के तौर पर भेंट करते हैं। जिसके पीछे यह अवधारणा रहती है कि वाहत चालक सकुशल अपनी मंजिल तय करने के बाद समय पर अपने घरों में पहुंच जाएं। पीर साहिब की मज़ार की आमदनी शाहाबाद के ग्रामीण आंचल के विकास कार्यो में लगाई जाती है। समाजसेवी संस्थाओं को समारोहों में स्मृति चिन्ह प्रदान करने हेतु यह घडिय़ां खंड विकास कार्यालय द्वारा नि:शुल्क प्रदान की जाती हैं।


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आवाज के पाठकों की संख्या अब तक निम्न है...हम आभारी है देश व देश की धरती से दूर बैठे हिंदी प्रेमियों के जिन्होंने आवाज को इतना सम्मान दिया.....
.आप का आभारी ......
     पवन सोंटी "पूनिया" कुरुक्षेत्र

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Monday, April 22, 2013

साहित्य सृजन में अहम भूमिका है शाहाबाद के रचनाकारों का............सुरेंद्र पाल वधावन




.विभिन्न भाषाओं  में 18 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं
हरियाणा पंजाबी गौरव एवं बाबा फरीद अवार्ड से अलंकृत हैं साहित्यकार प्रिसिंपल जोगेंद्र सिंह
सुरेंद्र पाल वधावन शाहाबाद मारकंडा द्वारा

साहित्य के क्षेत्र में शाहाबाद के अदीबों, शायरों, कवियों और लेखकों ने बेहतरीन साहित्य का सृजन कर शाहाबाद मारकंडा  का नाम प्रांतीय व राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया है। पिछले कुछ वर्षों में,विभिन्न भाषाओं और विधाओं के रचनाकर्मियों की यहां से अब तक 1 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और $खास बात यह है कि अधिकांश पुस्तकें साहित्य अकादमियों   द्वारा समय समय पर सम्मानित की जा चुकी हैं। 
हरियाणा पंजाबी साहित्य अकादमी के  हरियाणा पंजाबी गौरव पुरस्कार एवं बाबा फरीद अवार्ड से अलंकृत सरदार जोगेंद्र सिंह प्रिसिंपल यहां के अग्रणी साहित्यकार हैँ  जिनकी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें एक किताब उर्दू और तीन पंजाबी भाषा में हैं।
इन किताबों के नाम हैं-तीर-ओ-नश्तर, अघ्धी वाट दा साथ, जे तू अक्ल लतीफ और मनोबल आत्मविश्वास अते जीत। तीर-ओ-नश्तर को 1998में उर्दू साहित्य द्वारा और जे तू अक्ल लतीफ और मनोबल आत्मविश्वास अते जीत को वर्ष 2003 और वर्ष 2006 में पंजाबी साहित्य अकादमी ने सर्वश्रेष्ठ पुस्तक अवार्ड दे कर सम्मानित किया था। 

  विख्यात उर्दू शायर दिवंगत प्रौ$फेसर आर.पी.शो$ख के दो $गज़ल संग्रह-गम्ज़ा-ब-गम्ज़ा और मुनक्कश खंडहर ज़बीं, यहां से प्रकाशित हुए जिनमें  मुनक्कश खंडहर ज़बीं को हरियाणा उर्दू साहित्य अकादमी के सर्वश्रेष्ठ $गज़ल संग्रह के अवार्ड से नवाज़ा गया। दिवंगत शायर आर.पी.शौ$ख की इन दोनों किताबों का हिंदी भाषा में रुपांतरण यहीं के युवा रचनाकार सुरेंद्र बांसल द्वारा किया गया है, इस $गज़ल संग्रह का नाम है- जि़दगी के शीशे में। इसके अलावा सुरेंद्र बांसल ने प्रसिद्ध पर्यावरण विद् अनुपम मिश्र की पुस्तक-आज भी खरे हैं तालाब, को पंजाबी में अनुदित किया है इस पुस्तक का नाम है-अज्ज वी $खरे हन तलाब। स्थानीय उर्दू विद्वान डा. देस राज सपड़ा की उर्दू में दो किताबें -हरियाणा का उर्दू अदब तथा उर्दू में इसलाहे ज़ुबान की तहरीरें, प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें हरियाणा उर्दू अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया जा वुका है। सुरेंद्र पाल सिंह वधावन का काव्यसंग्रह-मेरी इक्कीस कविताएं यहां 2006 में प्रकाशित हुआ।
साहित्य सृजन की इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए यहां के पंजाबी व उर्दू भाषा के शायर कुलवंत सिंह चावला रफीक का गजल संग्रह-चीख़ खामोशी दी, प्रकाशित हुआ जिसे पंजाबी साहित्य अकादमी द्वारा सर्वश्रेष्ठ पुस्तक अवार्ड से नवाज़ा गया है। यहीं के समालोचक डा.नरेंद्र पाल सिंह की -लोकयान सिद्धांत अते मूल्यांकन नामक पुस्तक का विषयवस्तु हरियाणवीं एवं पंजाबी संस्कृति के परस्पर अंतर-संबंधों पर केंद्रित है।  पुस्तक की एक अन्य विशेषता है कि इसमें हरियाणा के स्थापित पंजाबी साहित्यकारों के कृतत्व और रचनाकर्म को पैनी और समीक्षात्मक दृष्टि से देखना-परखना। यहीं के उर्दू के शायर नरेंद्र सिंह र$फीक की -किश्त-ए-ख्याल के लिए  पुस्तक पुरस्कार मिला  है । यहां के इतिहासकार जसवंत सिंह नलवा की दो किताबें-ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में कुरुक्षेत्र और कंबोज कौम काम कुरबानियों का तथा आत्मकथा प्रकाशित हो चुकी  है। स्थानीय कहानीकार दर्शन सिंह का पंजाबी भाषा में ल$कीरें नामक कहानी संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है|


Thursday, April 18, 2013

कड़वा सच्च..ढोंगी बाबा....-(सुरेंदर पाल वाधवान )




नेताओं -अभिनेताओं के बिना अधूरे हैं आज  के सत्संग

कुछ संतों को है मीडिया का अच्छा खासा चस्का
समागमों पर किए जाते हैं लाखों खर्च,अभिनेता करते हैं गुणगान
सुरेंद्र पाल वधावन (शाहाबाद मारकंडा)
आजकल किसी संत महापुरुष के सत्संग या समारोह का आयोजन हो और उसमें किसी नेता -अभिनेता का आगमन न हो तो समझो सत्संग अधूरा है। नेताओं का सानिध्य पाने वाले इन संतों को नेताओं की तरह ही मीडिया में बने रहने का अच्छा खासा चस्का भी है। कार्यकम को लाईव दिखाने पर ही मोटा रुपया किसी चैनल को दिया जाता है। कुछ एक महापुरुष तो नेताओं के अलावा  फिल्मी हस्तियों को भी अपने समागम में बुलाकर अक्सर अपनी बल्ले-बल्ले करवाते रहते हैं।लोकप्रिय धारावाहिकों  के कई अभिनेता  भी सत्संग कार्यक्रमों में संत-गुणगान करते दिखाई दे जाते हैं।

 वास्तव में समय के बदलाव के साथ-साथ और आधुनिक तकनीक और जीवनशैली ने संत समाज के स्वरुप को बदल दिया है। आज के ज्यादातर संत सादगी से दूर हो रहे हैं और  पूर्णतया भौतिकवादी संस्कृति को आत्मसात कर चुके हैं। यह संत देश विदेश में समागम करते हैं जिन पर श्रद्धालुओं के लाखों रुपए खर्च होते हैं। इसके अलावा स्वंय को प्रचारित करने लिए उक्त श्रेणी के धनाढय संत महंगे  टी.वी चेनलों का सहारा लेते है। आमजन को अंत:मुखी बनने का उपदेश देने वाले यह संत स्वंय भौतिकवाद का बुरी तरह से शिकार हैं।
 किसी भी नगर में प्रवचन कार्यक्रम रखने से पहले संतों के बड़े बड़े कटाउट उसकी प्रमुख सडक़ों और स्थानों पर लगाए जाते हैं। पत्रकार सम्मेलन बुला कर पत्रकारों  से कवरेज की बात की जाती है और एवज में सत्संग के दौरान उन्हे सम्मानित किया जाता है। आयोजकों द्वारा  स्वागत द्वार सजाए जाते हैं और सडक़ों पर बिजली की लडिय़ां और फानूस लगाए-जगाए जातें हैं। बिजली की सप्लाई निर्विघ्र रखने के लिए जनरेटर उपलब्ध किए जाते हैं। जो लोग समागम में नहीं आते उन्हें संत जी की वाणी श्रवण कराने के लिए आयोजकगण हाई वॉटेज के स्पीकरों का इस्तेमाल करते हैं।  संतो के ठहरने की व्यवस्था आजकल किसी $गरीब की झोंपड़ी में नहीं होती और न ही संत कभी-भिक्षाम देह शब्द का उच्चारण करते भिक्षा मांगते हैं। संतो को भोज देने के लिए अमीर श्रद्वालुओं की कतार लगी रहती है। पंद्रह प्रकार के व्यंजन तैयार किए जाते हैं। समारोह स्थल के बाहर आर्युवेदिक दवाओं धार्मिक पुस्तकों चित्रों के स्टाल आकर्षण का केंद्र होते हैं। इन स्टालों पर पौरुष शक्ति बढ़़ाने की मूल्यवान दवाएं भी उपलब्घ रहती हैं। समागम में पंडाल के भरने की सूचना मोबाइल पर संत जी के प्रमुख चेले को मिलती है तो संतजी को एक लग्जरी वाहन में  प्रवचन स्थल पर लाया जाता है।











                                                           सुरेंदर  पाल वाधवान
                                                                9416872577

Wednesday, April 17, 2013

ग्रीन हाउस लगाकर प्रगति की राह पकड़ चूका है धर्म बीर मिर्जापुर|



छोटी जोत के किसानों में बढ़ रहा है अधिक आय लेने का रूझान।
जागरुक किसान बाजार भाव और लोगों की मांग को ध्यान में रखकर कर रहे हैं सब्जियों की खेती।
ग्रीन हाउस लगाकर प्रगति की राह पकड़ चूका है धर्म बीर मिर्जापुर|
कुरुक्षेत्र/ पवन सोंटी
देहात में एक कहावत प्रचलित हैं कि यदि पेट को ठीक रखना हैं तो खेत को ठीक रखना होगा। अतीत में कही गई यह कहावत आज भी पूरी तरह से तर्कसंगत हैं। पुराने जमाने में किसान रासायनिक खादों का बहुत कम यानि ना के बराबर प्रयोग करते थे। 
जैसे-जैसे समय बीतता गया बड़ी-बड़ी क पनियों ने किसानों को लुभावने नारे देकर उनका रुझान बेशक प्रति एकड़ उत्पादन में बढ़ोतरी की ओर कर दिया। किसानो ने अपनी मेहनत के चलते प्रति एकड़ खाद्यान उत्पादन में वृद्धि तो अवश्य की लेकिन असंतुलित रासायनिक खादों के प्रयोग के चलते जमीन की उर्वरा ताकत प्रभावित हुई, जिसका लोगों के यहां तक की पशुओं के स्वास्थ्य पर भी विपरित असर पर पड़ा।
                   सरकार के संस्थानों में कार्यरत वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में चिंता जाहिर करते हुए किसानों का रूख जैविक यानि ऑर्गेनिक खेती की ओर मोडऩा शुरु कर दिया। इसी बीच जनसं या बढऩे और जमीन के बंटवारें के चलते छोटी जोत के किसानों ने फसलों के विविधिकरण में भलाई की बात समझकर जैविक तरीके से खेती करना शुरु कर दिया। ऐसे किसानों, विशेषकर युवा किसानों में कम जमीन में अधिक उत्पादन लेने की बजाए अधिक आय लेने की ललक दिखने लगी। पिछले कुछ वर्षो में यदि देखा जाए तो सरकार की किसान हितैषी नीतियों कृषि और बागवानी मिशन के चलते प्रदेश के किसानों ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई हैं। ऐसे ही किसानों में जिला  कुरुक्षेत्र के गांव मिर्जापुर के किसान धर्मवीर सिंह का नाम भी गर्व के साथ लिया जा सकता हैं। एम.ए. पास पढ़े-लिखे किसान ने बेरोजगारी से जुझते हुए अपने ही खेत में कुछ अलग करने की ठानी और प्रदेश का बागवानी मिशन किसान के कार्य में मार्गदर्शक बना। 

                   किसान ने बागवानी विभाग की सहायता से जुलाई वर्ष 2012 में अपने खेत में 560 स्केयर मीटर में पॉली हाउस बनवाकर चार पती यानि लगभग 6 इंच ल बी ब बी और ओरविला नामक शिमला मिर्च की किस्मों की पौध लगाकर खेती शुरु की और लगभग 70 दिन बाद फसल में फल लगना शुरु हो गया। लगभग 90 दिन बाद फसल रंग लेने लगी। पोली हाऊस बनवाने मेेंं कुल खर्चा 4 लाख 75 हजार रुपए खर्चा हुआ। किसान को 50 प्रतिशत अनुदान मिला। किसान ने  2 लाख 37 हजार 500 रुपए  किसान भागीदारी के रुप में दिए। फसल में जैविक खाद का प्रयोग किया गया। 560 स्केयर मीटर में क्षेत्र में लगभग 40 क्ंिवटल मिर्च की पैदावार हुई, जो 45 से 60 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकी। इस प्रकार लगभग एक लाख 60 हजार रुपये की फसल बिकी, जिसमे खर्चा निकाल कर किसान को लगभग 70 से 80 हजार रुपये का शुद्ध लाभ हुआ।
                   किसान बताता है कि अच्छी फसल लेने के लिए पौधे से पौधे की दूरी 40 सैंटीमीटर तक होनी चाहिए तथा फसल में पानी की मात्रा और समय का भी ध्यान र ाने की जरूरत हैं। जुलाई में पौध लगाने उपरान्त सित बर के अंत तक फसल तैयार होने लगती है और अप्रैल के अंत या फिर मई के शुरू तक मिर्चों की फसल का उत्पादन मिलता रहता है। इस प्रकार शिमला मिर्च का सीज़न लगभग साढे 8 महीने तक चलता है। जहां तक फसल में पानी देने की बात है, किसान बताता है कि 560 स्केयर मीटर में लगाई गई शिमला मिर्च की खेती के लिए सर्दियों में दूसरे या फिर तीसरे दिन एक हजार लीटर पानी देना पड़ता है और यदि मौसम गर्मी का हो, तो इतना ही पानी प्रतिदिन देने की आवश्यकता है। वैसे एक एकड़ की शिमला मिर्च की फसल में सर्दियों में लगभग 6 हजार लीटर पानी दूसरे या तीसरे दिन देने की आवश्यकता है, जबकि गर्मियों में प्रतिदिन लगभग 6 हजार लीटर पानी देना पड़ता है। किसान ने 560 स्केयर मीटर में शिमला मिर्च की पौध के 1500 पौधे लगाए और यदि एक एकड़ में पौली हाऊस बनाकर शिमला मिर्च की खेती की जाए, तो लगभग 12 हजार पौधे लगाने की आवश्यकता पड़ती है। 

                   घरौंडा के सब्जी इंडो-इजराईल उत्कृष्ठा केन्द्र में आयोजित मेले में किसान धर्मवीर को प्रदेश के कृषि मंत्री परमवीर सिंह और बागवानी विभाग के निदेशक सत्यवीर सिंह ने फरवरी 2013 में राज्य स्तरीय पुरस्कार से स मानित किया। यह स मान पाने के उपरान्त किसान ने 4 हजार स्केयर मीटर में शिमला मिर्चों की खेती का मन बना लिया हैं। किसान शीघ्र ही अपने खेत में  पॉली हाउस बनवाकर विभिन्न किस्मों की मिर्चों की खेती के साथ-साथ टमाटर और बिना बीज के खीरे की खेती भी शुरु करने जा रहा है। चार हजार स्केयर मीटर में पोली हाऊस बनवाने में  लगभग 36 लाख रुपए की धनराशि खर्च होगी। इसमें से 65 प्रतिशत अनुदान के चलते किसान को लगभग 13 लाख रुपए हिस्सेदारी के रुप में देने होंगें।
                   इस संदर्भ मेंं जब किसान के खेत में बने पॉली हाउस में उससे बात की गई, तो उन्होनें पॉली हाउस में उगाई गई शिमला मिर्च की फसल दि ााते हुए बताया कि खुले में उगाई गई फसल की पैदावार पॉली हाउस में उगाई गई फसल की अपेक्षा कम होती हैं। पॉली हाउस में फसल का उत्पादन 4 से 5 गुणा अधिक बढ़ जाता हैं। बातचीत के दौरान किसान ने बताया कि यदि फसल अच्छी लग जाएं और बाजार में मांग बढ़ जाए, तो शिमला मिर्च 100 रुपए किलो तक बिक जाती हैं। खेत में पीले और लाल रंग की मिर्च दिखाते हुए किसान बताता हैं कि इस प्रकार की मिर्च अकसर बड़े-बड़े होटलों में सलाद के तौर पर खाई जाती हैं। आम बाजार में इनका भाव 40 से 60 रुपए प्रति किलोग्राम रहता हैं। मिर्च का वजन 50 से 200 ग्राम तक हो जाता हैं।
                   जिला में फसलो के विविधिकरण के चलते गांव ठोल के किसान मंदीप ने भी अपने खेत में नेटाजेट मशीन स्थापित करके लगभग 2 एकड़ में शिमला मिर्च की फसल लेने के लिए पौध की रुपाई की हैं। मशीन के प्रयोग से ड्रिप के माध्यम से 90 प्रतिशत पानी की बचत रहती हैं। किसान मंदीप बताता हैं कि उसने एक एकड़ में बैड बनाकर लगभग 13000 पौधे लगाए हैं। किसान का फसलों के विविधिकरण को बढ़ाते हुए बेमौसमी सब्जियां लगाने के लिए नैट लगाने का कार्यक्रम हैं। किसान के अनुसार वह बैंगन और करेले की फसल की खेती भी करता है। बदलते परिवेश में जैविक पद्धति से तैयार फसलों की मांग बढऩे लगी हैं। इसलिए फसलों के विविधिकरण में किसानों का रूझान भी अधिक आय लेने की ललक में करवटें बदलने लगा। बागवानी के क्षेत्र में हरियाणा सरकार का बागवानी मिशन किसानों, विशेषकर छोटी जोत के किसानों के लिए आर्थिक क्षेत्र में नये अध्यायों का सूत्रपात करने वाला सिद्ध हो रहा है।
                   उपायुक्त मंदीप बराड़ का कहना है कि कुरुक्षेत्र में जमीन की तासीर फसलों को बेहतर गुणवत्ता देने के साथ-साथ सब्जी उत्पादन के लिए भी बेहतर मानी जाती है। यही कारण है कि जो किसान गेहूं व धान की खेती करते हैं, वे सब्जियों, फलों, फूलों, यहां तक की खूंबी इत्यादि की खेती भी करते हैं। जिला के कई किसानों ने सब्जी उत्पादन के क्षेत्र के साथ-साथ फसलों के विविधिकरण में अच्छा नाम कमाया है। कई किसानों ने न केवन प्रदेश में, बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है। इस क्षेत्र में सरकार की कृषि और किसान हितैषी स्कीमें और योजनाएं भी किसानों का मार्गदर्शन बनकर उमड़ी है। कहना न होगा कि बदलते परिवेश में निकट भविष्य में यहां के किसान फसलों के विविधिकरण में और बेहतर नाम कमाएंगे।

Monday, April 15, 2013

राजस्थान के लोक संस्कृति पर विशेष लेख ...बेला गर्ग ,,,,हिम्मत व हौंसले की जीती मिसाल है मोहनलाल .....वधावन





गणगौर है स्त्रीत्व का उत्सव


- बेला गर्ग-

गणगौर राजस्थान लोक-संस्कृति से जुड़ा वह उत्सव है, जो नारी-जीवन की तमाम इच्छाओं को सुख की कामनाओं से जोड़कर अभिव्यक्त करता है। यह नारी उल्लास का पर्व है और नारी असितत्व एवं असिमता की अक्षुण्णता इसका हार्द है।

सोलह दिन तक उल्लास और उमंग के साथ चलने वाला यह पारम्परिक पर्व सही मायने में स्त्रीत्व का उत्सव है। एक महिला के ह्रदय के हर भाव को खुलकर कहने, खुलकर जीने का उत्सव। विवाह के बाद पहली गणगौर मनाने के लिए ब्याही बेटियों का पीहर आना और सब कुछ भूलकर फिर से अपनी सखियों संग उल्लास में खो जाना रिश्तों को नया जीवन दे जाता है। गणगौर भारतीय गृहस्थ जीवन का महाकाव्य है। यह लोक-उत्सव जनमानस को अपने सुख में डुबोकर पुन: ताजगी से भर देता है। इस पर्व में महिलाएं एवं युवतियां बहुविध प्रयत्नों से अपने जीवन को संवारने के लिये प्रतिबद्ध होती है, वे गाती है, मनौतियां मांगती है, उत्सवमयता को संजोती है, अच्छे वर की कामना करती है, जो विवाहित या नवविवाहित हैं वे अच्छे जीवन के सपनों के बीज बोती है, यह सब करते हुए वे समूचे परिवेश को पवित्र कर देती है। यह पर्व जीवन को उल्लास एवं खुशी से रोमांचित कर देता है। 

कोयल जब बसंत के आगमन की सूचना देने लगती है। खेतों में गेहूं पकने लगता है। आम्र वृक्ष बौरों के गुच्छों की पगड़ी बांधते हैं। तब बसंत के उल्लासित मौसम में गणगौर का त्यौहार मनाया जाता है। गणगौर का त्यौहार नारी जीवन की शाश्वत गाथा बताता है। यह नारी जीवन की पूर्णता की कहानी है। यह त्यौहार अपनी परम्परा में एक बेटी का विवाह है। जिसमें मां अपनी बेटी को पाल-पोसकर बड़ा करती है। उसमें नारी का संपन्न और सुखी भविष्य देखती है- उसी तरह गणगौर पर्व में जवारों को रौपा जाता है और नौ दिन तक पाला-पोसा जाता है, सींचा जाता है। धुप और हवा से उनकी रक्षा की जाती है और एक दिन बेटी का ब्याह रचा दिया जाता है। गणगौर से जुडे़ लोकगीत भी मंत्रों की तरह गाये जाते हैं। पूजा के हर समय और हर परम्परा के लिए गीत बने हुए हैं, भावों की मिठास और मनुहार लिए।
शिव गौरी के दाम्पत्य की पूजा का पर्व गणगौर मानो प्रगति का उत्सव है। माटी की गणगौर बनती हैं और खेतों से दूब और जल भरे कलश लाकर उनकी पूजा की जाती है। मुझे यह एक अकेला ऐसा त्यौहार लगता है जब सब सखिया हिल-मिल हर्षित उल्लासित हो मां गौरी से सुखी और समृद्ध जीवन के लिए प्रार्थना की जाती हैं।
आज भले ही समय बहुत बदल गया है पर मैंने स्वयं इस त्यौहार को अपने गांव राजस्थान के शेखावटी अंचल के लक्ष्मणगढ़ में कुछ इस तरह मनाया है कि बहू-बेटियां पूरे हक से चाहे जिस खेत में जाकर दूब ला सकती थीं। कोर्इ रोक-टोक नहीं होती थी। गीत गातीं, नाचती और देर रात तक बिना किसी भय के गांव भर में घूमती थी। आज यह पर्व हम राजस्थानी महिलाएं पूरी आन-बान और शान के साथ पूरे रीति-रिवाज से दिल्ली महानगरीय जीवन में भी उसी गरिमा एवं परम्परा से मनाती है।
गणगौर का सन्देश यही है कि नारी अपनी सम्पूर्णता में ढलते हुए पवित्रता, स्नेह, सहयोग, ममत्व एवं ममत्व जैसी पवित्र भावना से अपने को अभिसिचिंत करे। ऐसे आचरण से ही नारी सौलह कला सम्पन्न एवं आदर्श चरित्र की नायक बनती है। तथाकथित आधुनिक एवं पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के कारण इस पर्व की गरिमा भी धुंधला रही है। यही कारण है कि इस पर्व का आध्यातिमक एवं सांस्कृतिक महात्म्य भूलते जा रहे हैं, मर्यादाओं का दायरा सिकुड़ रहा है और नारी अपनी नारी-सुलभ गुणों को धुंधला रही है। जबकि पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते को सुदृढ़ बनाने, एक श्रेष्ठ पारिवारिक संरचना को गठित करने, मूल्यनिष्ठ समाज की स्थापना करने, पूरे विश्व को एकसूत्र में बांधने तथा समग्र नारी समाज को पवित्रता के संकल्प में बंधकर हर एक को इसकी पहल करने का अलौकिक सन्देश देता है गणगौर।
  हर युग में कुंआरी कन्याओं एवं नवविवाहिताओं का गहरा संबंध गणगौर पर्व से जुड़ा रहा है। आदर्श पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना में इस पर्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और उसी से व्यवहार में शुचिता आती है। सातिवक भावनाएं एवं नारी सुलभ उच्च ऊर्जा से तन-मन आध्यातिमक शांति और आनन्द से सरोबार हो जाता है। जीवन निर्माण के संकल्पों से आबद्ध सभी बालिकाएं एवं महिलाएं सामूहिक भकित एवं सांस्कृतिकता की साधना के माध्यम से एक अनोखी सामाजिकता की भावना विकसित करती है। अपने असितत्व, परिवार में जीने और दाम्पत्य को सुखद बनाने की पहली शकित हर नारी गणगौर पर्व की पृष्ठभूमि से प्राप्त करती है। यधपि इसे सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मान्यता प्राप्त है किन्तु जीवन मूल्यों की सुरक्षा एवं वैवाहिक जीवन की सुदृढ़ता में यह एक सार्थक प्रेरणा भी बना है।
गणगौर शब्द का गौरव अंतहीन पवित्र दाम्पत्य जीवन की खुशहाली से जुड़ा है। कुंआरी कन्याएं अच्छा पति पाने के लिए और नवविवाहिताएं अखंड सौभाग्य की कामना के लिए यह त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाती हैं, व्रत करती हैं, सज-धज कर सोलह श्रींगार के साथ गणगौर की पूजा की शुरुआत करती है। पति और पत्नी के रिश्तें को यह फौलादी सी मजबूती देने वाला त्यौहार है, वहीं कुंआरी कन्याओं के लिए आदर्श वर की इच्छा पूरी करने का मनोकामना पर्व है। यह पर्व आदर्शों की ऊंची मीनार है, सांस्कृतिक परम्पराओं की अद्वितीय कड़ी है एवं रीति-रिवाजों का मान है।
गणगौर का त्यौहार होली के दूसरे दिन से ही आरंभ हो जाता है जो पूरे सोलह दिन तक लगातार चलता है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से कुवांरी कन्याएं और नवविवाहिताएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ला द्वितीया (सिंजारे) के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुर्इ गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं।
सोलह दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार में होली की राख से सोलह पीणिडयां बनाकर पाटे पर स्थापित कर आस-पास ज्वारे बोए जाते हैं। र्इसर अर्थात शिव रूप में गण और गौर रूप में पार्वती को स्थापित कर उनकी पूजा की जाती है। मिटी से बने कलात्मक रंग-रंगीले र्इसर गण-गौर झुले में झुलाए जाते हैं। सायंकाल बींद-बींनणी बनकर बागों में या मोहल्लों में रंग-बिरंगे परिधान, आभूषणों में किशोरियां और नवविवाहिताएं आमोद-प्रमोद के साथ घूमर नृत्य करती हैं, आरतियां गाती हैं, गौर पूजन के गीत गाकर खुश होती हैं। जल, रोली, मौली, काजल, मेहंदी, बिंदी, फूल, पत्ते, दूध, पाठे, हाथों में लेकर वे कामना करती हैं कि हम भार्इ को लडडू देंगे, भार्इ हमें चुनरी देगा, हम गौर को चुनरी धारण करायेंगे, गौर हमें मनमाफिक सौभाग्य देगी।
नाचना और गाना तो इस त्यौहार का मुख्य अंग है ही। घरों के आंगन में, सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है। परदेश गए हुए इस त्यौहार पर घर लौट आते हैं। जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात को जरूर आयेंगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा को व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत हैं। ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं।
गणगौर का पर्व दायित्वबोध की चेतना का संदेश हैं। इसमें नारी की अनगिनत जिम्मेदारियों के सूत्र गुमिफत होते हैं। यह पर्व उन चौराहों पर पहरा देता है जहां से जीवन आदर्शों के भटकाव की संभावनाएं हैं, यह उन आकांक्षाओं को थामता है जिनकी गति तो बहुत तेज होती है पर जो बिना उद्देश्य बेतहाशा दौड़ती है। यह पर्व नारी को शकितशाली और संस्कारी बनाने का अनूठा माध्यम है। वैयकितक स्वार्थों को एक ओर रखकर औरों को सुख बांटने और दु:ख बटोरने की मनोवृत्ति का संदेश है। गणगौर कोरा कुंआरी कन्याओं  या नवविवाहिताओं का ही त्यौहार ही नहीं है अपितु संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं को प्रेम और एकता में बांधने का निष्ठासूत्र है। इसलिए गणगौर का मूल्य केवल नारी तक सीमित न होकर मानव मानव के मनों तक पहुंचे।

                        



(बेला गर्ग)
र्इ-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25 आर्इ. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोन: 22727486, 981105113 








मिसाल
हिम्मत व हौंसले की जीती मिसाल है मोहनलाल
100 फीसदी फिजीकली चैलेंजड पर स्वाबलंबी
शाहाबाद मारकंडा/सुरेंद्र पाल वधावन
दिल में अगर कुछ कर गु़ज़रने का जजबा हो तो इंसान बड़ी से बड़ी मुश्किल से भी पार उतर जाता है। ऐसा ही एक साक्षात् उदाहरण है यहां का मदनलाल जो पूरी तरह से विकलांग होने पर भी अपने लिए दो जून की रोजी का जुगाड़ कर लेता है । नगरवासी पूरा दिन एक 18 वर्षीय 100 प्रतिशत विकलांग मोहनलाल पुत्र कृष्णलाल को रोटरी क्लब शाहाबाद द्वारा 10-11-2012 को दी गई ट्राई साईकिल पर बाजारों में घूमते देखते हैं। यह नवयुवक जो इस समय निकटवर्ती अरूपनगर में रहता है 2008 में हुई एक रेल दुर्घटना में दोनों टांगे गंवा बैठा था। बी.पी.एल. है तथा सरकार द्वारा इसे विकलांग पैंशन 750 रूपए मासिक मिल रही है। 
पिता कृष्णलाल डा. नागपाल अस्पताल के निकट पूजा टेलर के नाम से दर्जी का कार्य करता है। एक मुलाकात में इस युवक ने कहा कि अपनी आजीविका के लिए तथा इस लक्ष्य से कि वह स्वावलंबी हो वह जो लोग उसे अपनी रसोई गैस की पर्ची कटवाने या फिर गोदाम से उसका गैस सिलेंडर लाने को कहते हैं या अन्य कार्य कहते हैं वह कर देता है और इससे प्रतिदिन लगभग 150 रूपए कमा लेता है।