Tuesday, February 10, 2015

जरूर पढ़ें :- दिल्ली चुनाव पर ताजा टिप्पणी ...एन डी टी वी से साभार

प्रियदर्शन की बात पते की : विकराल बहुमत के खतरे





नई दिल्ली : दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने जो बहुमत हासिल किया है, वह विशाल नहीं, विकराल है। नरेंद्र मोदी की लहर को सुनामी बताने वाले अमित शाह को एहसास होगा कि वास्तविक राजनीतिक सुनामी दिल्ली में घटी। यहां सरकार बनाने की चंद कोशिशों के बीच लगातार दिल्ली के चुनाव टालती रही बीजेपी पा रही है कि उसके पास महज तीन सीटें हैं, जबकि आम आदमी पार्टी ने 95 फीसदी से ज़्यादा सीटें जीतकर शायद एक इतिहास बना दिया है - ऐसा इकतरफा बहुमत शायद ही कभी किसी को नसीब हुआ है।

लेकिन यह इकतरफा बहुमत ही वह खतरा है, जिससे आम आदमी पार्टी को सबसे पहले खुद को और फिर दूसरों को बचाना होगा। दलित नेता कांशीराम कभी कहा करते थे कि वह मज़बूत नहीं, मजबूर सरकारें चाहते हैं। ऐसी सरकारें बहुत निरंकुश नहीं हो पातीं। इस देश में मज़बूत सरकारों का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। यह इंदिरा गांधी की मज़बूत सरकार थी, जिसने इमरजेंसी लगाई, यह राजीव गांधी की मज़बूत सरकार थी, जिसके कार्यकाल में अयोध्या के ताले खुले, बोफोर्स की धूल उड़ी और कई और अदूरदर्शी फैसले हुए।

राज्यों में भी मज़बूत सरकारों ने बहुत गुल खिलाए हैं। आम आदमी पार्टी के विकराल बहुमत का खतरा यही है। केजरीवाल खुद को पहले से ही अराजक बताते रहे हैं। इस अराजकता पर वह काबू पा भी लें तो अपने उन सहयोगियों को कैसे रोकेंगे, जिनके पास जोश ज़्यादा और होश कम रहा है। सोमनाथ भारती से लेकर राखी बिड़ला तक में हंगामा करने की भरपूर योग्यता रही है। इसके अलावा खुद केजरीवाल स्टिंग सिखाकर राज चलाना चाहने वाले मुख्यमंत्री रहे हैं। ऐसी स्थिति में उनका विशाल बहुमत विधानसभा में भी उनके लिए कोई प्रतिरोध नहीं रहने देगा। ऐसा प्रतिरोध न रहने पर लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए नेता भी बड़ी तेज़ी से तानाशाह बनते हैं। केंद्र की एनडीए सरकार के भीतर इस तानाशाही के निशान कई मिलते हैं।

अच्छी बात यह है कि आम आदमी पार्टी के कुनबे में एक समाजवादी धारा भी है। यह समाजवादी धारा 'आप' से उम्मीद की असली वजह बन सकती है। दूसरी वजह इस पहली वजह से ही सामने आती है। पिछले कुछ वर्षों में केजरीवाल ने जितना जुझारूपन दिखाया है, उतना ही लचीलापन भी। कभी राजनीति न करने की कसम न खाने वाले केजरीवाल ने राजनीति में पांव रखे और कई बार ज़रूरत के दबाव में बदलते दिखे। उम्मीद करें कि यह बदला हुआ बहुमत केजरीवाल और उनके सहयोगियों को विनम्र भी बनाएगा, ज़िम्मेदार भी और अंतत: सामाजिक न्याय और बराबरी के प्रति संवेदनशील भी।