Tuesday, November 27, 2012

A heart tuching Poem By Surender Pal Singh Vadhavan




घरोंदा

पुराने शहर की एक गली में
ऊंचा मस्तक, सीना ताने
शान-अदब से रहता था
वो घर मेरा।

घर के चौकौर आंगन में
चूल्हे पर धर मिट्टी की हंडिया
दादी अम्मां साग पकाया करती थीं
लकड़ी की मथनी से अम्मां
दूघ बिलोआ करती थीं।

साईकिल की घंटी की ट्रिन-ट्रिन
करते पापा जब घर आते थे
सुन-सुन कर बच्चों की फरमाईश
मंद -मंद मुस्काते थे।
बड़े कडक़ थे दादाजी
सब पर रौब जमाते थे
ढीली  चारपाईयां  कसते
बच्चों से बतियाते थे।
घर के आंगन में ,एक कुंई थी
ठंडा मीठा जल था जिसका
रस्सी को चरखी पे चढ़ा कर पानी
खींचा करते थे,
खूब नहाया करते थे।

ऊंची- ऊंची दीवारें उसकी,
नक्काशीदार दर-दरवाज़े
बैठक भी थी अलबेली
सूरज की किरणों से झिलमिल
सतरंगी खिल जाती थी
एक महल सा दिखता था
बड़ी शान से रहता था
वो घर मेरा।

आधी सदी का जीवन साथी
मेरे दु:ख सुख का साथी,
अब वो मुझ से छूट गया है
अब वो मुझसे रुठ गया है।

मेहराबदार दीवारें जिसकी
नक्काशीदार थे  दर-दरवाज़े
ऊंचा मस्तक, सीना ताने
शान-अदब से रहता था
वो घर था मेरा।
सुरेंद्र पाल वधावन, शाहाबाद मारकंडा






 














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