होली के पावन पर्व पर सभी पाठकों को आवाज परिवार की और से हार्दिक बधाई
होली वसंत
ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह
पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है,
जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन,
जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं,
और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया
जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले
मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने
का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए
कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।
होली एक सामाजिक पर्व है। यह रंगों से भरा रंगीला त्योहार, बच्चे, वृद्ध, जवान, स्त्री-पुरुष सभी के ह्रदय में जोश, उत्साह, खुशी का संचार करने वाला पर्व है। यह एक ऐसा पर्व है जिसे भारत ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व में किसी ना किसी रूप में मनाया जाता है। इसके एक दिन पहले वाले सायंकाल के बाद भद्ररहित लग्न में होलिका दहन किया जाता है। इस अवसर पर लकडियां, घास-फूस, गोबर के बुरकलों का बडा सा ढेर लगाकर पूजन करके उसमें आग लगाई जाती है।
वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते है, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पडा। वैसे होलिकोत्सव को मनाने के संबंध में अनेक मत प्रचलित है। कुछ लोग इसको अग्निदेव का पूजन मानते हैं, तो कुछ इसे नवसंम्बवत् को आरंभ तथा बंसतांमन का प्रतीक मानते हैं। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था। अतः इसे मंवादितिथि भी कहते हैं।
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।
होली एक सामाजिक पर्व है। यह रंगों से भरा रंगीला त्योहार, बच्चे, वृद्ध, जवान, स्त्री-पुरुष सभी के ह्रदय में जोश, उत्साह, खुशी का संचार करने वाला पर्व है। यह एक ऐसा पर्व है जिसे भारत ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व में किसी ना किसी रूप में मनाया जाता है। इसके एक दिन पहले वाले सायंकाल के बाद भद्ररहित लग्न में होलिका दहन किया जाता है। इस अवसर पर लकडियां, घास-फूस, गोबर के बुरकलों का बडा सा ढेर लगाकर पूजन करके उसमें आग लगाई जाती है।
वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते है, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पडा। वैसे होलिकोत्सव को मनाने के संबंध में अनेक मत प्रचलित है। कुछ लोग इसको अग्निदेव का पूजन मानते हैं, तो कुछ इसे नवसंम्बवत् को आरंभ तथा बंसतांमन का प्रतीक मानते हैं। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था। अतः इसे मंवादितिथि भी कहते हैं।
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।
सुनीता धारीवाल परिवार के साथ हमने असमय खो दिया एक होनहार सितारा
कुरुक्षेत्र (पवन सौन्टी)
गत लोकसभा चुनाव में कुरुक्षेत्र लोकसभा क्षेत्र से आजाद उम्मीद्वार के तौर पर
चुनाव लड़ चुकी सुनीता धारीवाल के युवा पुत्र अंकित धारीवाल की अचानक मृत्यु हो गई
है। मृत्यु का कारण ब्रेन हैमरेज बताया गया है। अंकित धारीवाल मास कम्यूनिकेशन का अन्तिम
वर्ष का होनहार छात्र था। अंकित धारीवाल की मृत्यु पर कई सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक संगठनों ने शोक
प्रकट किया है।
इस उर्जावान युवा से धारीवाल
परिवार के साथ राष्ट्र को भी बहुत उम्मीदें थी। मैं जब पहली बार इसे जाट धर्मशाला कुरुक्षेत्र
में मिला था तो एक नजर में इससे बहुत प्रभावित हुआ था। जब सुनीता बहन जी ने बताया कि
यह जनसंचार की पढ़ाई कर रहा है तो एक पत्रकार के नाते मेरी उनसे लम्बी बात हुई थी।
उनके विचारों से मुझे काफी आशा जगी थी कि यह युवा जरूर जीवन में कुुछ किर्तीमान स्थापित
करेगा। यह दुर्भागय ही है कि वक्त के करुर पंजों ने आज उस होनहार को हमसे झीन लिया।
यह अपूर्णीय क्षति सुनीता बहन जी के परिवार के साथ मुझे अपने से भी जुड़ी लग रही है।
मुझे इस युवा के संसार छोडऩे के समाचार से उसी प्रकार धक्का लगा जैसा कि 19 अप्रैल 2008 की सुबह अपने इसी उम्र के युवा भतीजे
रजनीश चौधरी से लगा था। मैने युवा पुत्रनुमा भतीजे और मेरे हर सुख दुख के साथी उस रजीनश
उफ राजू को खोने का जो गम उस वक्त हुआ था आज वैसा ही अहसास आज हो रहा है। इस दुखद घड़ी
में मैं पवन सौन्टी अपनी और व युवा मजदूर किसान मोर्चा की ओर से, सम्पूर्ण आवाज परिवार की ओर से शैलेंद्र
चौधरी लाडवा, सुरेंद्र पाल वधावन शाहबाद, मेघराज मित्तल, सुबे सिंह, विनय चौधरी, नवनीत चौधरी, पवन शर्मा, विक्रम शर्मा, सतविंद्र टाया, सुबेसिंह कश्यप, जाट धर्मशाला कुरुक्षेत्र से प्रबंधक
चौधरी भल्ले सिंह, पूर्व महावचिव दलबीर ढाण्डा
आदि सब शोक संतप्त धालीवाल परिवार के साथ हैं। भगवान इस परिवार को यह पहाड़ जैसा दुख
सहने की शक्ति प्रदान करे व अंकित को फिर से किसी भी रूप में इस परिवार में भेज कर
अपने चमत्कार को अपने भक्तों को दिखाऐ।
इस दुखद घड़ी में एक संदेश सभी पाठकों
के लिये कि इस असामयिक मौत से धारीवाल परिवार को सहानूभूति प्रकट करने वाले सज्जन उनके
वर्तमान आवास चंडीगढ न जाकर उनके पैतृक नगर खनौरी मण्डी में पंहुचे। रस्म क्रिया का
आयोजन 11 मार्च रविवार को उनके पैतृक
नगर खनौरी मण्डी में ही होगा।
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