......तो आने वाले समय में दाने दाने को तरसेगा आम आदमी
:पवन सौन्टी:
धरती पुत्र किसान सदा से किस्सा-ए-अन्न ही बन कर रह गया। आज तक इस किस्से को राजनेताओं,
गाथा गायकों,
समाज के ठेकेदारों,
नीति निर्धाकों व न
जाने कितने लोगों ने भुनाया व गाकर खुद नाम और धन कमाया। किसान फिर भी किस्सा ही बन
कर रह गया, उसके लिये वास्तव में किसी ने कुछ नहीं किया और न ही करने की आस नजर आती है। मजेदार
बात तो यह है कि उसके अपने भाई भी संगठन बनाकर उसके नाम पर निजी स्वार्थ साधते नजर
आते हैं। अगर वास्तव में किसानों के हितों के लिये कुछ करने की सोच इन लोगों मे होती
तो अकेले हरियाणा प्रदेश में ही भारतीय किसान यूनियन के नाम पर इतने संगठन न खड़े होते।
भारतीय किसान यूनियन की राष्ट्रीय
स्तर पर बात की जाए तो दिवंगत चौ. महेंद्र सिंह टिकैत एक छत्र राष्ट्रीय किसान नेता
हुए हैं और उनके संगठन से जुड़े हरियाणा के प्रदेशाध्यक्ष हैं स. गुरनाम सिंह चढूनी।
दूसरी और भूपेंद्र सिंह मान भी भाकियू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दावा करते थे और उनके
हरियाणा प्रधान थे अजित सिंह हाबड़ी। यही नहीं गुणी प्रकाश भी खुद को भाकियू का हरियाणा
का प्रदेशाध्यक्ष बताते हैं। इन सबके साथ जाने माने किसान नेता घासी राम नैन भी आजकल
सक्रिय हैं। यह वही किसान नेता हैं जिन्हें कभी चौटाला सराकर में लम्बे समय तक जेल
में भेज दिया गया था। इन नेताओं व उनके अनुयाइयों की मांगे भी अलग अलग होती हैं। अब
यही स्थिती स्पष्ट नहीं रहती कि हरियाणा के किसानों का सही नेतृत्व कौन कर रहा है?
सरकारें तो पहले ही
किसानों के लिये असल में कुछ नहीं करना चाहती और नेतृत्व विहीनता के इस आलम में तो
सराकरों को और भी आसानी रहती है। ध्यान रहे कि कुछ समय पहले कुरुक्षेत्र में गुरनाम
सिंह चढूनी के नेतृत्व में भाकियू ने किसानों की मांगों को लेकर जीटी रोड़ जाम किया
था। उस दौरान प्रधानमंत्री से मिलाने का अश्वाासन देने वाली हरियाणा सरकार ने अभी तक
कुछ नहीं किया। दूसरी ओर कुछ किसान नेता भूमि अधिग्रहण के नाम पर या तो भू-माफिया को
ब्लैकमेल करने की कोशिश करते हैं या फिर अपना उल्लू सीधा करने के लिये स्वार्थ वश भोले
भाले किसानों को प्रयोग करते हैं। सही संघर्ष का वक्त आता है तो ये कहीं नजर नहीं आते।
आलम यह है कि सैंकड़ों वर्ष
पहले प्रख्यात लेखक मुन्शी प्रेमचंद के द्वारा वर्णित किसान की हालत में आज का किसान
गुजर कर रहा है। जिस किसान के घर से कोई सदस्य या तो सराकरी नौकरी पा गया या फिर विदेश
में पहुंच गया अथवा किसी अन्य व्यवसाय से जुड़ गया, उसके घर में तो समृद्धि नजर आती है।
अन्यथा चाहे बड़ा भू-स्वामी हो या लघु अथवा सीमांत किसान, सभी दुर्दशा के शिकार हैं। बैंकों
के खातों में उनकी जमीन रहन पड़ी है। सहकारी समितियों से डिफाल्टर हो चुके हैं,
बे-जमीन अथवा कम जमीन
वाले किसान साहूकार के कर्ज में बंधे पड़े हैं। छ: माह की मेहनत से पैदा किया गया अन्न
उनके साहुकारी ऋण का ब्याज तक नहीं उतार पाता और कर्ज का बोझ दिनों दिन उसकी कमर तोड़
रहा है। आज भी किसान सौ वर्ष पहले की तरह हाड तोड़ मेहनत के बाद अपने बच्चों को विरासत
में कर्ज की गठरी के अलावा कुछ नहीं दे पाता।
व्यापारी का व्यापार गुणित
हो रहा है तो किसान की जोत बंट रही है। जिस व्यापारी के पास एक दुकान या फैक्ट्री थी
उसके 4 बेटे
हैं तो 4 ही
दुकानें या फैक्ट्रियां हो जाती हैं जबकि जिस किसान के पास 10 एकड़ जमीन थी उसके चार बेटों
के पास अब केवल ढाई एकड़ प्रति के हिसाब से जमीन बंट जाती है। यही नहीं अगर वक्त की
मार पड़ जाए तो वह जोत और भी घट जाती है। यह दशा है देश की अर्थ व्यवस्था की धूरी माने
जाने वाले धरती पुत्र की। उसके साथ बिचौलिये की भूमिका निभाने वाले व्यापारी का आलम
यह है कि किसान का जो पूसा-1121 धान इस बार मंडी में 1500 रूपये क्विंटल तक बिका वही अब व्यापारी
के हाथ में जाकर 2800 रूपये तक पहुंच चुका है। कुछ समय पहले जब किसान का आलू बाजार में था तो उसकी कीमत
1 रूपये से
लेकर 3 रूपये
तक थी जबकि अब किसान के हाथ से निकलने के बाद वही आलू 10 रूपये प्रति किलोग्राम से उपर जा
रहा है। जब किसान की फसल मंडी में आती है तो उसके उत्पादों का निर्यात भी बंद हो जाता
है और जब व्यापारी के हाथ में जाती है तो सरकार उद्धार हो जाती है और विदेशी व्यापार
के मार्ग स्वत: खुलने लगते हैं। गन्ने के मौसम में कोई प्रयास नहीं होता जबकि मौसम
निपट जाने पर चीनी के विदेशी निर्यात की पैरोकारी होने लगती है। किसान की गेहूं को
नमी की मात्रा बताकर मंडी में रूलाया जाता है या फिर 1 से 4 किलोग्राम प्रति क्विंटल तक अधिक
की भर्ती की जाती है जबकि सराकरी गोदामों तक पहुंचने में मंडी से लेकर रास्ते में ढुलाई
वाले चालकों व परिचालकों तक चोरी के बाद भी वह गेहूं पूरी हो जाती है। ऐसे में लुटता
कौन है, किसान
और केवल किसान। जब धान के सराकारी खरीद के नाम पर कम भाव में खरीदने के बाद भी पर्चे
न्यूनतम मूल्य के बनते हैं तो कौन लुटता है? केवल किसान ही तो लुटता है। उसके
नाम पर राजनीति करने वो किसान संगठन अथवा राजनैतिक दलों के किसान संगठन उस वक्त नहीं
बोलते। उनको मामले उठाने के लिये शायद प्रयाप्त सबूत नहीं मिलते। उस वक्त तो किसान
की मजबूरी बताकर उसे लुटने दिया जाता है और बाद में होती है उसके नाम पर राजनीति। जब
न्यूूनतम समर्थन मूल्य घोषित होता है तो कुछएक संगठनों द्वारा मात्र ग्यापन देने अथवा
प्रैस नोट बांटने के अलावा सरकार पर दबाव बनाने के लिये कुछ खास नहीं होता। सराकारों
को तो चाहिये ही यही कि कोई चर्चा न हो।
जब वेतन आयोग की बात आती
है तो सभी कर्मचारी संगठन एक मत से उठ खड़े होते हैं, लेकिन किसानों के लिये कोई ठोस पहल
नहीं होती। न तो किसान संगठित हो पा रहे हैं और न ही किसान संगठन संगठित हो पा रहे
हैं। आज जरूरत है कि किसानों के नाम पर बने सभी संगठन, विशेषकर भारतीय किसान यूनियन के नाम
पर चल रहे कई संगठन, एक मंच पर आऐं व किसानों के लिये ठोस नीतियों को तैयार करके सराकार पर धावा बोलें।
जब संगठन एक मंच पर होंगे व उनकी कथनी एक सी होगी तो किसान भी उनपर विश्वास करके आगे
आऐंगे और सराकारों की मजबूरी होगी कि इस वर्ग की भलाई के लिये ठोस कदम उठाऐं। अन्यथा
वह दिन दूर नहीं कि किसान के पुत्र खेती को पूरी तरह त्याग देंगे और खेेतों में या
तो जंगली घास उगेगी या फिर बड़े व्यापारी घराने उनको कब्जा लेेंगे और जिस अनाज के लिये
आज लोग निश्चिंत हैं वही अनाज दवाओं के भाव से भी उपर थैलियों में पैक होकर मिलेगा।
किसान के बच्चे तो मजदूरी करके अपना पेट शायद पाल लेंगे, लेकिन उस आम आदमी का क्या होगा जो
तीन वक्त के भोजन के लिये किसान पर ही निर्भर है और किसान की बदौलत उसको अपनी पहुंच
में भोज्य वस्तुऐं नजर आती हैं।
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