हरियाली तीज पर अब पहली सी बहारें कहां?
सुरेंद्र
पाल वधावन (शाहाबाद मारकंडा)
----कितने प्यारे लोग थे जिनको अपने $गमों से फुरस्त
थी, फैज़ अहमद फैज़ के इस अशआर की पंक्तियां आज सिर्फ एक याद
महसूस होती हैं कल की ,जब न तो $गम-ए-रोज़गार
होता था और न ही होता था $गम-ए-इश्$क। ऐसे में इंसानी रिश्तों को जीता आदमी मनोरंजन के जो तरी$के अपनाता था उनमें पर्व-त्यौहार सब से बढ़-चढ़ कर होते थे।उन दिनों आदमी
त्यौहार मनाता नहीं था बल्कि त्यौहारों में जीता भी था। बरसात के इंद्रधनुषी रंगों
और मदमस्त फुहारों-बयारों में मनाए जाने वाला हरियाली तीज एक ऐसा त्यौहार है जिसका
सुहागिनों को शिद्त से इंतज़ार रहता है।
सावण के झूले झूलती झूमती इठलाती -इतराती सुहागिनें अपनी खुशी का इजहार इस
लोकगीत के माध्यम से करती हैं--
नींब की निंबोली पाकां
सावण कब आवागा
जीवा हो मेरी मां का जाया
गाडी भेज बुलावा जागा
गाडी के पहिये रडकां
बैलों की टालियां
नींब की निंबोली ----
यह अलग बात है कि आज हमारी प्राचीन
परंपराएं महानगरीय और आधुनिकता की चकाचौंध में कहीं खो सी गई हैं। कंकरीट के
जंगलों ने हमारे प्राकृतिक जंगल लील लिए हैं। आज गांवों में सुहागिनों को हरियाली
तीज पर झूला उालने के लिए वृक्ष तलाशने पड़ते हैं। एक ही पेड़ पर झूला डाल कर बस
औपचारिकता निभा भर दी जाती है। पिया को लुभाने के लिए सुहागिनें मस्ती में झूला
झूलते गाती हैं-
इक वन-वन मोर पपीहा बोला
कोयल सबद सुणाए दी
इस सावण महीने में घर आयोजी बालम
तीज मणाइयो जी घर आपणे
इक मैं ए झूरूं,मेरे नैण बरसां
पिया बिन मेरा भीतर सूना
देख डरांगी लाजो कामिनी
इक वन-वन---
हरियाली तीज पर बृज भूमि की एक विशेष
परंपरा है। त्योहार के मौके पर जंवाईराजा को बुलाया जाता है और तब वह पत्नी को उसक
पीहर से विदा कर ले जाता है।
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