Tuesday, April 29, 2014

अपनी लाश को खुद ढोता आम आदमी...


सुरेंद्र पाल वधावन/ शाहाबाद मारकंडा
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार जसपाल भट्टी का लोकप्रिय जुमला-आम आदमी दी जिंदगी वी की जिंदगी है-दु:ख, तकलीफां ते धक्के-आज के माहौल पर कितना प्रासंगिक लगता है। दरअसल आम आदमी वोट देने के लिए जीता है और वोट देकर मर जाता है। आम आदमी चौरासी लाख योनियों का संताप अपने इसी एक ही जन्म में भुगतता है। आम आदमी गर्धभ के रुप में जीवन का बोझा ढोता है। पालतू श्वान के रुप में अपने आ$का की चौखट पर बंधा रहता है। $खास आदमी की दुधारु गाय है आम आदमी। खास आदमी की सफलता पर -बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनकर झूमता है आम आदमी।

अंग्रेजी की एक कहावत है-एवरी डॅाग हैज़ ए डे-यानी कि कुत्ते का भी एक दिन होता हे। इस कहावत में संशोधन करके यह भी कहा जा सकता है कि-कॉमनमैन हैज़ ए डे- यह दिन होता है जिस दिन आम आदमी केवल एक दिन के लिए $खास आदमी बनकर मर जाता है यानी के मतदान का दिन। आम आदमी सत्ताएं बदल सकता है लेकिन अपनी त$कदीर नहीं। दूसरे की त$कदीर बना सकता है लेकिन खुद की बिगड़ी  किस्मत नहीं संवार पाता। आम आदमी $खास आदमी के लिए भीड़ का हिस्सा बनता है। $खास आदमी के लिए तालियां पीटता है आम आदमी। खास आदमी के लिए अक़्सर पिटता है आम आदमी। $खास आदमी के लिए जान तक कुरबान कर देता है आम आदमी। $खास आदमी के लिए बस आम का फल ही है आम आदमी,जिसे चूस-चाट कर फैंक दिया ेजाता है। आम आदमी का दु:खड़ा दर्द क्यों समझे-जानें खास आदमी। प्याज महंगा है तो आंसू पीकर प्यास मिटाए आम आदमी। कजऱ् में दबा है तो आत्महत्या करले आदमी। ठंड से मर रहा है तो जनसंख्या कम करने में योगदान पा ले आम आदमी। खास आदमी बहुत व्यस्त है। घोटालों में मस्त है। खास आदमी अगर आम आदमी के लिए सोचेगा तो वक्त की बरबादी होगी। इसीलिए अब आम आदमी को $खास आदमी के लिए ही कुछ न कुछ सोचना पड़ेगा। वरना,रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ अपनी ही लाश का खुद मज़ार आदमी।

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