स्त्री-पुरुष संबंध, कहां उचित और कहां अनुचित?
अनूप लाठर
निदेशक, युवा एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम विभाग,
कुरुक्षेत्र विश्वविधालय
पिछले काफी समय से एक बहस जन्म ले रही है कि प्रेम विवाह कहां उचित हैं और कहां अनुचित? यह बहस खास तौर पर हरियाणा में ज्यादा बलवती होती जा रही है। विशेष तौर पर इसमें अनभिज्ञता वश खापों को भी घसीटने का प्रयास यदा कदा किया जाता रहा है। इस बहस में पडऩे से पहले मेरे ख्याल से यह जानना अति आवश्यक है कि समाज मेंं स्त्री पुरुष के संबंध किस रूप में और कहां तक उचित हैं। विभिन्न संबंधों व परिस्थितियों के अनुरूप इनकी परिभाषा बदलती रहती है।
माता व बहन आदि के सम्मानीय संबंधों को एक तरफ रख कर अगर हम-उम्र के मामलों में इस पर विवेचन किया जाए तो स्त्री पुरुष का वस्तविक सम्बंध संभोग का संबंध है। वो संबंध कब जायज है और कब नाजायज है, इसके बारे में में पूरे विश्व में भिन्न जातियां भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न काल में नियम बनाती हैं और वही नियम समाज कबूल करता है। एक समय था जब एक स्त्री के साथ 5 पुरुषों का संभोग जायज था जैसे महाभारत में। एक समय वो भी था जब पुत्र की उत्पत्ती नहीं हुई तो उधार में सम्भोग कर लेना जायज था। एक समय हमारे समाज ऐसा भी था कि चार या दो भाईयों द्वारा एक स्त्री को पत्नी मान कर उससे उनका सम्भोग जायज था। पती के मरने के बाद पती के छोटे भाई के साथ संभोग लत्ता (चादर उढाने की परम्परा) उठाने के बाद जायज माना जाता है। पत्नी के मरने के बाद पत्नी की छोटी बहन से शादी करके संभोग भी जायज था, लेकिन पूरे विश्व में दो संभोग के नियम हैं। एक सम्भोग परिवार के सबसे नजदीक संबंध से और एक संभोग परिवार के सबसे दूर के संबंध से जितने भी दूर जितने संबंध हो सकते हैं उनसे भी परे। सबसे नजदीक का संबंध का उदाहरण है इजिपशियन फैरोहाज़ में जहां एक स्त्री पुरुष दोनों सगे बहन भाई के बीच सम्भोग होता था जो जायज था। उनके सम्भोग से उत्पन्न बेटा और बेटी के बीच भी सम्भोग के संबंध जायज थे। इन संबंधों से उत्पन्न संतानों को वो अपने परिवार का विशुद्ध रक्त मानते थे। दूसरी ओर ब्रिटेन में आज से सिर्फ 200 साल पहले एक आदमी की पत्नी की मृत्यु हो जाती है तो और वह उसकी बहन से शादी करना चाहता है तो सारे समाज में शोर शराबा मच जाता है कि यह गलत है जबकि दूसरे समाज में इसको जायज माना जाता है।
हर युग के अपने अनुसार अपने अपने नियम होते हैं। हमारे यहां जो समस्या है वह यह है कि अपना गोत्र, गांव का गोत्र, मां का गोत्र, व सीमा लगते पास के गांव (गवांड) में शादि वर्जित मानी जाती है। इसके साथ ही गांव में अगर दूसरे किसी गोत्र से आपसी भाईचारा है तो वहां पर भी शादी वर्जित मानी जाती है। इसके पीछे यह भी तर्क माना जाता है कि जितने दूर के रिश्ते हों उतना अगर उनका मिलन होगा तो एक अच्छी संतान होगी। अच्छी संतान उत्पत्ती के लिये हमारे समाज के एक भाग में एक प्रथा यह भी थी कि एक व्यक्ति जो शक्ति शाली होता था उसको सांड की तरह गांव में छोड़ दिया जाता था। वह जिस भी घर में जाता था स्त्री से सम्भोग कर सकता था। उसके घर में होने की निशानी होती थी उसके जूते घर से बाहर उतरे होना। यह सब अच्छी संतान प्राप्ति के लिये उचित माना जाता था। जब उस व्यक्ति की शक्ति कमजोर हो जाती थी तो उसको जमीन में जिंदा गाड दिया जाता था। बाद में ऐसा समय आया कि ऐसा व्यक्ति शक्ति कमजोर होने पर मौत के डर से भाग जाया करता था। नतीजन यह परम्परा धीरे धीरे खत्म हो गई।
हमारे यहां दूर के रिश्ते में शादी करना आरम्भ क्यों हुआ इसके बारे में भी तथ्य हैं। 1881 में एक अंग्रेज लेखक डेंजियल इबिटसन ने अपने शोध दी पंजाब कास्टस में लिखा भी है कि आर्यों में शादियां स्त्री के अपहरण और चोरी व कब्जे आदि से होती थी। जब हमारा समाज पशुपालन में खानाबदोश की तरह था और पशु चराते आगे से आगे निकलते जाते थे, तब तक शादियों का यही तरीका चलता रहा। जब जीवन शैली में परिवर्तन आया और चलायमान की बजाय हमारे पूर्वजों ने स्थाई बस्तियां बना कर रहना शुरु किया तो शादियों के नियमों में भी परिवर्तन आया। नियम बदलने लगे और सामाजिक गठबंधन बनने लगे। इस दौर में जो नियम बने उनमें अपने गौत्र तथा गांव आदि को शादि के लिये वर्जित किया गया। फिर आस पास के गांवों में शादि वर्जित की गई और फिर गोत्र के भाई चारे में शादियां सामाजिक व्यवस्था के अनुसार वर्जित की गई।
ऐसा क्यों हुआ, इसके पीछे भी कुछ कारण रहे हैं। किसी भी सामाजिक नियम के तय होने के पीछे कुछ कारण होते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से भी यह नियम बना की अपने गोत्र व मां के गोत्र की लडक़ी नहीं उठाई जाऐगी न ही गोत्र के भाईचारे की बेटी उठाई जाऐगी क्योंकि उससे आपसी सुरक्षा चक्र टूट जाऐगा। धीरे धीरे करते करते हुए यही नियम तय हो गए। आज विवाह के जो रीतिरिवाज हैं उनके बनने के पीछे ऐसे ही कुछ कारण हैं।
अतीत में जो घटनाऐं हुई होती हैं वह नियमों को निर्धारित करने की जमीन तय करती हैं। आज समाज में घुड़ चढ़ी की प्रथा है वह इस का प्रमाण है कि लडक़ी उठाने के लिये बाहुबल की जरुरत होती थी। उसके बाद परम्परा अनुसार बारात दोपहर बाद या शाम को पहुंचती थी। इसके पीछे कारण था कि गांव के बाहर जाकर सेंध मारने के लिये गांव की सीमा से बाहर बैठ जाओं और ज्यों ही अंधेरा पड़े तो गांव में घुस जाओ। उसके बाद ज्यों ही घर में दुल्हा या बाराती आते हैं तो उनको रोकने की रस्म बार द्वारी है। यह भी लुटेरों को रोकने की प्रथा का प्रचल्लित रूपांतरण है। उसके बाद फेरे देर रात होने के पीछे भी यही कारण था कि चोरी से कार्य होता था। उसके बाद वधु पक्ष की महिलाओं द्वारा सीठणियां देने का प्रचल्लन भी यही साबित करता है कि लडक़ी उठाने वालों को विरोध स्वरूप गालियां देकर अपने गुस्से का इजहार करना। उसके बाद लड़कियों का विदाई के समय रोना भी इसी का प्रतीक है कि उस वक्त ल_ की लड़ाई में उसके परिजनों की मौतें होती थी या चोटें लगती थी। वह उन्हीं के लिये रोती थी। उसके बाद की प्रथा यह थी कि लडक़ी का पिता अपनी लडक़ी की ससुराल नहीं जाता था। इसके पीछे भी यही कारण था कि वर पक्ष उसके दुश्मन होते थे। लडक़ा शादी के लम्बे समय बाद जब अपनी ससुराल जाता था तो पूछ कर जाता था, इसके पीछे भी यही कारण था कि यह देख लिया जाऐ कि क्या वधु पक्ष का गुस्सा शांत हो गया है? गुस्से का प्रमाण इस बात से भी मिलता है कन्या पक्ष से जुड़े जितने भी संबंध हैं सभी गालियों में प्रयोग होते हैं जैसे साला, ससुरा, साली आदि।
अगर सामाजिक संबंधों की परम्परा का शास्त्रीय पक्ष देखा जाए तो मानव के संबंधों के आधार पर नियम बांधे जाते हैं। गुरु शिष्य का संबंध, वैवाहिक संबंध आदि। विवाहों को शास्त्रों के अनुसार आठ प्रकार से बांटा गया है। ब्राह्मण विवाह, गांधर्व विवाह, प्रजापत विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच विवाह आदि। ब्राहमण विवाह वह है जैसा आम तौर पर करते हैं। प्रेम विवाह को गांधर्व विवाह कहते हैं। राक्षसी विवाह वह है जब युद्ध के द्वारा कन्या का वर्ण किया जाऐ। इस प्रकार संबंधों के लिये अलग अलग नियम तय होते हैं और हमारे समाज में खाप पंचायतों ने इन नियमों को लागू करने में अहम भूमिका निभाई है। मैं इनका समर्थन भी करता हूँ, लेकिन खाप द्वारा कत्ल का कभी समर्थन नहीं करता। खापों के सराहनीय फैसलों का सदा सम्मान होता है। खापों ने कभी अंतर्जातीय विवाहों का विरोध नहीं किया और न ही अंतर धार्मिक विवाहों का विरोध किया। जो प्रेमी जोड़ों को मारने के फरमान होते हैं वह उनके गावों के लोगों के फैसले होते हैं, खापें कभी तालीबानी नहीं होती। खाप का फैसला तो होता ही नहीं, खाप तो समाज द्वारा लिया गया फैसला सुनाती है। समस्याओं को सुन कर विचार करके बहुमत के विचार व सोच के फैसले की खाप उद्घोषणा करती है। खाप की कोई सरंचना नहीं होती बल्कि खाप का स्वरूप परिस्थितियों से बनता है। जैसी समस्या होती है वैसी ही खाप बनती है जैसे सर्व खाप पंचायत आदि।
खाप का महत्व कब बना इसके पीछे है पंचायतों का गठन। जब संविधान लागू हुआ उससे पहले पंचायतों को कोई संवैधानिक अधिकार नहीं थे। वह गांव के समाज के लिये जो भी उचित या उत्तम कार्य होता था वह चाहे सामाजिक हो या आर्थिक अथवा धार्मिक या कोई आपदा हो उन सभी चीजों के लिये पंचायत यानि के गांव के बुजुर्गों की एक समिति गांव की उस समस्या को लेकर अपनी सोच और समझदारी से सुलझाती थी। उसके पश्चात जब संविधान लागु हुआ तो पंचायतों को भी संवैधानिक अधिकार प्रदान किये गए और ग्रामीण विकास या उत्थान के लिये सरकार की ओर से उनको धन उपलब्ध करवाया जाने लगा। धीरे धीरे पंचायतें सिर्फ सरकारी अनुदान व सरकारी तंत्र तक ही सिमट कर रह गई और सामजिक दायित्व उनसे पीछे छूट गया। इन परिस्थितियों में धीरे धीरे खाप पंचायतों का महत्व सामाजिक दायरों को लेकर महत्वपूर्ण होता चला गया। सिर्फ पंचायत ही नहीं बल्कि सराकरी स्तर पर भी सामाजिक समस्याओं के दायित्व को संभालने में जिम्मेवारी नहीं निभाई गई। पिछले कुछ दशक से आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक परिवर्तनों के कारण समाज व समाज की सोच में भी परिवर्तन आए हैं। यह दौर सामाजिक सोच के संक्रमण का दौर है। इसलिये सामाजिक व परिवारिक समस्याऐं दिन पर दिन अलग अलग तरीके से प्रकट हो रही हैं। अगर इन्हीं सामाजिक समस्याओं को सरकार अपने दायरे में समेट ले तो शायद खापों के हस्तक्षेप के बिना भी इसका हल संभव है। दूसरे हमारी एक सोच ऐसी बन गई है कि इस प्रकार के विषयों पर आम चर्चा नहीं होती जिस कारण यह समस्याऐं और विकराल होती जाती हैं। सराकरी व संवैधानिक स्तर की संस्थओं को मिल कर इन गैर संवैधानिक संस्थाओं द्वारा उजागर की गई समस्याओं को गंभीर चिंतन एवं चर्चा के साथ समझ लेना बहुत जरूरी है। जो आर्थिक व राजनैतिक परिवर्तन आया है उसके द्वारा सामाजिक परिवर्तन आना भी जरूरी है। ऐसे में जो सामाजिक व परिवारिक संबंधों में परिवर्तन आने की अपेक्षा की जाती है उसके उपर चिंतन की गम्भीर आवश्यक्ता है। सामाजिक परिवर्तन को एक दिन में ही नहीं अपनाया जा सकता और न ही उसे तुरंत कानूनी दायरे में लाया जा सकता है। आज का युवा इस मीडिया ऐक्सपोजर और भूमंडलीकरण के दौर में भिन्न भिन्न सोच और रहन सहन व खान पान से परीचित हो रहा है। उसकी सोच में परिवर्तन बड़ी उम्र के लोगों से तेजी के साथ आने की ज्यादा संभावना है। इसी लिये समस्या और विकराल हो रही है।
अब बच्चियों में यौन शोषण के मामलों पर अगर गौर करें तो सामने आए मामलों में से 80 फिसदी ऐसे मामले होते हैं जिनमें यौन शोषण में उनके परिजनों या बहुत ही नजदीकियों को संलिप्त पाया जाता है। ऐसे में इस तरीके का मामला अगर सामने आता भी है तो उसे परिवारिक स्तर पर दबाने का प्रयास किया जाता है। उसके बारे में कहीं बाहर चर्चा तक नहीं होती। इन मुद्दों को उजागर करने की अपेक्षा ढंकने की कोशिश की जाती है। ऐसे में कई बार तो दोषी व्यक्ति वर्षों तक भी शोषण करता रहता है। बच्चियां इन मामलों में मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं कर पाती। यह सब तब है जबकि परिवार में और हमारे समाज में इस तरह के संबंध सिर्फ न ही प्रतिबंधित हैं, बल्कि वो प्रतिबंध पाप की शैली में माने जाते हैं।
इसके पीछे कारण यह है कि अनुवांसिकता से हम पशु हैं, लेकिन सामाजिक रूप से हम पशु नहीं हैं। पशुओं की कोई रिश्तेदारी नहीं होती और न ही उनके मसले होते हैं तथा न ही वो घरों में रहते हैं । इन्सान सदा ही आकाश और आकाश में स्थित विभिन्न शक्तियों व खगोलिय पिण्डों तथा घटनाओं से सदा ही सम्मोहित रहा है। इसी लिये आकाश में उडान भरने वाले परींदों से भी इन्सान ने प्रेरणा ली। उनसे इन प्राणियों से जहां हौंसले का पाठ सीखा वहीं घरौंदे बनाने की भी सीख ली। उनसे परिवारवाद का पाठ पढ़ा कि किस प्रकार एक पक्षी अण्डे देता है और फिर उसका जोड़ीदार उसके साथ मिल कर अण्डों से बच्चे निकालते हैं और सामूहिक रूप से उन बच्चों का पालन पोषण करते हैं। पक्षी घर बनाते हैं लेकिन पशु घर नहीं बनाते। पक्षी जोड़ों में रहते हैं जबकि पशु जोड़ों में नहीं रहते। हमने पक्षियों से बहुत कुछ सीखा है, लेकिन कहीं न कहीं कभी कभी हमारे उपर पशुता हावी हो जाती है। यह अनुवांशिक कारणों से ही है। तभी तो कहते हैं कि जानवर का जानवर रहा। पक्षी सीमाऐं नहीं बनाते जबकि पशु सीमाऐं तय करते हैं और अपने क्षेत्रों को चिन्हित करते हैं। और जब हमारी सीमाओं की पिपासा बढ़ती है तो हम पशुता की ओर हावी होते हैं। इसी यात्रा में हमने जब भगवान बनाऐ तो उनको चिन्ह दिये। जो भगवान बल से जुड़े हैं उनको हमने पशुओं के चिन्ह दिये। शक्ति की प्रतीक दुर्गा को शेर दिया। जब सरस्वती शिक्षा की देवी को चिन्ह दिया तो हंस दिया। गणेश को हमने चूहा दिया जो सीमा की पिपासा को दर्शाता है, लेकिन कार्तिके जो इमानदारी से निकल पड़ा उसको सबसे सुंदर पक्षी मोर उसकी सवारी के रूप में बनाया। समाज हर समय प्रकृति के अनुसार अपने मुताबिक नियम बनाता रहा है। नियम व परिवर्तन की आवश्यकता भी है। इसका एक फायदा भी है कि एक गांव के गांव आपस में दायरे बनाऐ रखें। नहीं तो गांवों में मर्यादाऐं समाप्त हो जाऐंगी।
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