लहूलुहान मानवता का गुनहगार कौन ...........?
ओमकार चौधरी
फिर वही साइकिल। वही टिफिन। वही भीड़ भाड़ वाले इलाके और लहू लुहान पड़े
शरीर। शहर बदल जाते हैं पर धमाकों की तासीर नहीं बदलती। पुलिस प्रशासन और
सरकार का रवैया भी नहीं बदलता। केन्द्रीय गृह मंत्री का बयान पूरे देश ने
सुना। उन्होंने यह कहते हुए अपने सिर की बला राज्य के सिर पर डालते हुए
पल्ला झाड़ लिया कि दो दिन से हमें सूचना मिल रही थी। हमने तो राज्यों को
अलर्ट रहने को कह दिया था। प्रधानमंत्री ने लोगों से सब्र से काम लेने की
अपील कर दी है। सोनिया गांधी से लेकर विपक्ष के नेताओं ने भी दुख जता दिया,
लेकिन इससे जो लोग बम धमाकों के शिकार हो गए हैं, वो तो वापस आने से रहे।
जो घायल हुए हैं, वे भी जीवन भर के लिए अपंग हो गए हैं। यह आतंक हमारे देश
के लिए ऐसा नासूर बन गया है, जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। और गौर
से देखें तो इसके लिए जहां पाकिस्तान जिम्मेदार है, वहीं हमारी देश की
वोटों की तुच्छ राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है।
आंध्र प्रदेश की
राजधानी हैदराबाद में छह मिनट के अंतर पर दो धमाके हुए और देखते ही देखते
कई लोग काल का ग्रास बन गए। पचासों जख्मी हो गए, जिनमें से कई की हालत
गंभीर है। जाहिर है, मृतकों की संख्या बढ़ेगी। आईबी, एनआईए, एनएसजी से लेकर
दूसरी जांच व खुफिया एजेंसियां हैदराबाद पहुंच चुकी हैं। जांच-पड़ताल के
सिलसिले फिर शुरू हो गए हैं। जिस तरह पुराने मामलों में जांच एजेंसियां
असली किरदारों तक नहीं पहुंच पाई, उसी तरह इस बार भी इसकी कोई गारंटी नहीं
है कि हंसती खेलती जिंदगियों से खिलवाड़ करने वाले नरपिसाचों की गरदनों तक
उनके हाथ पहुंच ही जाएंगे। और ऐसी आशंका जाहिर करने की भी पुख्ता वजह है।
हमारे सत्ता प्रतिष्ठान और एजेंसियां पुरानी घटनाओं और बेकसूरों की असंख्य
मौतों से कोई सीख नहीं लेती। जब भी कोई दर्दनाक वारदात होती है, दिखावे के
लिए दस-पांच दिन पुलिस डंडे-बंदूक लेकर रास्तों-चौराहों पर आने-जाने वाले
वाहनों को रोक-रोककर अपनी सजगता का अहसास कराती है परन्तु समय गुजरने के
साथ ही फिर वह पुराने ढर्रे पर लौट आती है। और देश विरोधी ताकतें अब भारतीय
सुरक्षा व जांच एजेंसियों की इस फितरत से भली-भाति परिचित हो चुकी हैं।
हमेशा की तरह राजनेता मारे गए मासूमों को श्रद्धांजलि देते हुए उनके
परिवारों के प्रति संवेदना जाहिर कर देंगे। सरकारें मुआवजों की घोषणा कर
देंगी। बड़े नामचीन चेहरे एक-दो दिन बाद अस्पतालों में घायल लोगों की
मिजाजपुर्सी के लिए कैमरों की चकाचौंध के बीच हाजिर हो जाएंगे। कुछ लोगों
को हिरासत में लेकर पूछताछ की जाएगी। हो सकता है, उनमें कुछ निर्दोष भी
हत्थे चढ़ जाएं, जिनके बारे में बाद में पता चले। और इस तरह एक बार फिर ऊपर
से नीचे तक पदों पर बैठे लोग अपनी अपनी जिम्मेदारियों का कुशलतापूर्वक
निर्वहन कर लेंगे, लेकिन इनमें से कोई भी इस बात की गारंटी नहीं लेगा कि
आगे से अब किसी राष्ट्रविरोधी तत्व को किसी के खून से खेलने की इजाजत नहीं
दी जाएगी। ऐसा इसलिए क्योंकि उनमें ऐसा करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति ही
नहीं है। इनमें से हरेक को अपने-अपने वोट बैंक की चिंता है।
बार-बार
यह सवाल पूछा जाता है और यह वाजिब भी है कि 9/11 की घटना को बारह साल हो गए
हैं। उसके बाद अमेरिका में आतंकवादी एक भी वारदात क्यों नहीं कर पाए? वहां
की सरकार और सुरक्षा एजेंसियां आतंक के नासूर को उखाड फैंकने में कैसे
कामयाब हो गई? और भारत सरकार, राज्य सरकारें, हमारा खुफिया और सुरक्षा
तंत्र बार-बार नाकारा क्यों साबित हो रहा है? 26/11 के मुंबई हमले के बाद
तमाम राज्यों को केन्द्र ने अपने सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने के लिए
सहायता भी उपलब्ध कराई है परन्तु क्या कारण है कि वारदातें रुकने का नाम
नहीं ले रही हैं। अमेरिका में जहां 9/11 के बाद से एक भी बड़ी वारदात नहीं
हुई है, वहीं भारत में आतंक से जुड़ी छोटी-बड़ी 2035 घटनाएं घट चुकी हैं,
जिनमें और 240 लोगों की जान चली गई है। मुंबई अटैक में भी 160 से अधिक लोग
मारे गए थे।
यह जांच का विषय है कि इन धमाकों के तार कहां से जुड़े हुए
हैं। हाल फिलहाल में कई ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिनके आलोक में इन धमाकों को
देखने की कोशिश की जानी चाहिए। भड़काऊ भाषण देने के आरोप में हैदराबाद में
विधायक अकबरुद्दीन औवेसी गिरफ्तार किये गये थे। इसके अलावा जनवरी में मुंबई
अटैक के दोषी अजमल आमिर कसाब को और फरवरी में संसद पर अटैक के जिम्मेदार
अफजल गुरु को फांसी दी गई है। इन दोनों ही घटनाओं के बाद सीमा पार बैठे
आतंकियों के आकाओं ने भारत पर हमलों के ऐलान किए थे। गृहमंत्री कहते हैं कि
कुछ दिन से उनके पास सूचनाएं आ रही थी कि आतंकवादी हमले करने की फिराक में
हैं। यदि यह बात सही है तो इसे इंटैलीजैंस की विफलता ही कहा जाएगा कि वह
पता नहीं लगा सकी कि उनके निशाने पर कौन से शहर और जगहें हैं? और इसके
अलावा राज्य की पुलिस भी जिम्मेदार है, जिसने भीड़ भाड़ वाले इलाकों में उस
तरह की चौकसी और एहतियात नहीं बरती, जिसकी जरूरत थी।
हैदराबाद की घटना
से यह बात एक बार फिर सिद्ध हई है कि हम पुरानी घटनाओं से सबक लेने को
तैयार नहीं हैं। और कसाब व अफजल गुरु की फांसी के बाद जिस तरह के हाई अलर्ट
पर संवेदनशील शहरों को रखा जाना चाहिए था, वैसा नहीं किया गया। और सबसे
अहम सवाल तो ये है कि इस काहिली के लिए इस बार भी कोई जिम्मेदारी लेगा या
नहीं?
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