Monday, November 28, 2011

कुरुक्षेत्र उत्सव-गीता जयंती समारोह पर विशेष-प्रस्तुति: अनूप लाठर



गीता जंयती अहसास करवाता है उस कर्म
संदेश का जिसने जन्म तो कुरुक्षेत्र की पवित्र धरा पर लिया लेकिन पूरी
दुनिया को अपने आलोक से चमकाया
 
प्रस्तुति:
अनूप लाठर
( लेखक वरिष्ठ सांस्कृतिक कर्मी एवं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के
युवा एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम विभाग के निदेशक हैं)

कुरुक्षेत्र उत्सव - गीता जंयती समारोह एक अनूठा उत्सव है जो कि मार्घशीष
महीने में शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। माना जाता है कि इसी
दिन भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को ज्योतिसर के पवित्र स्थान पर गीता का
उपदेश दिया था। पिछली शदी के नौवें दशक में आरम्भ हुए इस उत्सव का गहनता
से अवलोकन करें तो इसने जहां अपनी छोटी उम्र में विशेष पहचान बनाई वहीं
कई गिरावटों का भी सामना किया। कभी यह राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचा तो कभी
जिला स्तर के आयोजन की तरह सिमट कर रह गया। शब्दानुसार कुरुक्षेत्र उत्सव
कुरुक्षेत्र नामक उस पावन धरा के महिमा मण्डन का उत्सव है जिस पर धर्म की
स्थापना हुई। इसके साथ जुड़ा शब्द गीता जंयती अहसास करवाता है उस कर्म
संदेश का जिसने जन्म तो कुरुक्षेत्र की पवित्र धरा पर लिया लेकिन पूरी
दुनिया को अपने आलोक से चमकाया।
       कुरुक्षेत्र और गीता बेशक एक दूसरे के प्रायवाची नजर आते हों, लेकिन
इनमें व्यापक भेद को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। कुरुक्षेत्र शब्द
गीता से प्राचीन है। इस क्षेत्र पर धर्म की स्थापना महाराजा कुरु ने
महाभारत से कहीं पहले कर दी थी और गीता का संदेश महाभारत युद्ध के दौरान
ब्रहमंड में गूंजा। यही वह पावन स्थली है जहां पर सरस्वती के तट पवित्र
तट पर श्रृष्टी की रचना हुई। यहीं पाणिनी ने ऐतिहासिक टिपणियां लिखी,
यहीं पर चीनी यात्री ह्यूनसांग ने भारत यात्रा के खुलासे किये, इसी
क्षेत्र की चर्चा होती है बौध साहित्य में 16 जनपदों में से एक के रूप
में जिसे ब्रह्म देश के रूप में संबोधित किया गया है।

महाराज कुरु की कर्मस्थली है कुरुक्षेत्र
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कुरक्षेत्र के नाम से उस 48 कोस की भूमि को
जाना जाता है जिस क्षेत्र पर महाराजा कुरु ने अपने काल में सोने का हल
चलाया था। मान्यताओं के अनुसार महाराजा कुरु की इस कठोर तपस्या से
महाराजा इंद्र का सिंहासन डोल गया। वह धरती पर आए और महाराज कुरु से पूछा
कि यह क्या हो रहा है? महाराजा कुरू ने जवाब दिया कि वह अष्ट धर्म यानि
पुरुषार्थ का बीज बो रहे हैं। उनके हल में भगवान शिव का नंदी बैल और
यमराज का भंैसा जुड़ा देख महाराज इंद्र डर गए। वह तुरंत भगवान विष्णु के
पास पहुंचे और उनको सारा वृतांत सुनाया और कहा कि अगर धरती पर भगवान शिव
के नंदी और यम के भैंसे को कुरु जैसे लोग हल में जोडऩे लगे तो इससे
विलक्षण और क्या हो सकता है। भगवान विष्णु तुरंत धरती पर महाराज कुरु के
सामने प्रकट हुए और पूछा कि महाराज ये क्या कर रहे हो? महाराज कुरु ने
सीधा सा उत्तर दिया कि वह परोपकार की खेती कर रहे हैं। जब भगवान विष्णु
ने पूछा कि इसका बीज कहां से लाओगे तो महाराज कुरु ने सीधा सा जवाब दिया
कि अपनी देह से बीज बोऐंगे। भगवान विष्णु ने तुरंत अपने सुदर्शन चक्र से
उसके बाजू को काट कर टुकड़े कर दिये, महाराजा कुरु शरीर के उन टुकड़ों को
भूमि में बोते रहे, थोड़ थोड़ा करके उनके सारे शरीर के टुकड़े हो गए और
उन्होंने सारे शरीर को बो दिया। इस पर प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने
उन्हें दिव्य शरीर प्रदान किया। उन्होंने कुरु से कहा कि वह वरदान मांगे
तो कुरु ने तीन वरदान मांगे जिनमें अपने लिये मोक्ष की कामना की। जिस 48
कोस के क्षेत्रफल में उन्होंने हल जोता था उसके बारे में मांग की कि उसे
उनके नाम से ही जाना जाए और तीसरे वरदान के रूप में उन्होंने मांगा कि इस
क्षेत्र में कोई भी बिना भेदभाव के आए उसे मोक्ष की प्राप्ति हो। भगवान
विष्णु तथास्तु कह कर अंतरध्यान हो गए। यही नहीं भगवान ने इस क्षेत्र की
रक्षा के लिये करीब 8000 दिव्य धर्नुधर रक्षक भी इस क्षेत्र की रक्षा
हेतू दिये। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार आज भी महाराज कुरु व उनके रक्षक इस
क्षेत्र की रक्षा करते हैं। पदमपुराण में उल्लेख है कि हरिद्वार में केवल
जल पवित्र है, लेकिन कुरुक्षेत्र, करनाल, पानीपत, कैथल व जींद जिलों के
बीच फैले इस 48 कोस के कुरुक्षेत्र में जल, थल और वायु तीनों ही पवित्र
हैं।

महाभारत - कुरुक्षेत्र और गीता का संदेश

       महाराजा कुरु के वंशज ही माने जाते हैं कौरव और पांडव। जब उनके बीच
युद्ध का समय आया तो ऐसा क्या था कि उनको इस युद्ध के लिये कुरुक्षेत्र
की ओर खींच लाया। इसके पीछे भी यही मान्यता है कि यह भूमि वरदान प्राप्त
थी और यहां मोक्ष प्राप्ति का वरदान भगवान विष्णु ने महाराजा कुरु को
दिया था। इसके साथ ही बिना भेदभाव के इस भूमि में आने वालों को मोक्ष की
प्राप्ति भी दी गई थी। संभवत: यही कारण है कि इस भूमि का धर्म युद्ध के
लिये चयन किया गया। इसके बाद यह भूमि और पवित्र इस कारण हो गई कि यहीं से
महाभारत युद्ध के दौरान दुनिया को कर्म का संदेश देने वाली गीता की वाणी
ब्रहमांड में गूंजी। महाभारत में वर्णित है कि जब अर्जुन सामने की कौरव
सेना में अपने पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्या व बंधु बांधवों को देख कर
हथियार डालने की बात करते हैं तो उनके सारथी भगवान श्री कृष्ण उन्हें मोह
से त्याग हेतू धर्म व कर्म का संदेश देते हैं और अपन दिव्य रूप दिखाते
हैं। अर्जुन व भगवान श्री कृष्ण के बीच का यही संवाद है गीता का अमर
संदेश।


गीता के संदेश को जन जन तक पहुंचाने का प्रयास भी है गीता जयंती समारोह
दो दशक से कुरुक्षेत्र में मनाया जा रहा गीता जयंती समारोह एक तरह से
गीता के अमर संदेश को जन जन तक पहुंचाने का प्रयास है जो काफी सफल भी हो
रहा है। इस समारोह के दौरान गीता के रहस्य को विभिन्न विधाओं के माध्यम
से जनता तक पहुंचाने का प्रयास होता है। गीता मनीषी अपने विचारों द्वारा
गीता के संदेश को जन जन तक पहुंचाते हैं। और इस प्रकार अध्यात्म व
संस्कृति के साथ इतिहास को भी ताजा करता है यह समारोह। इस दौरान लोगों की
अपार भीड़ जहां पवित्र ब्रह्म सरोवर तट पर जुटती है वहीं सनिहित सरोवर,
ज्योतिसर तीर्थ व पिहोवा में भी भारी भीड़ होती है। यही नहीं कुरुक्षेत्र
भूमि में फैले अनेक स्थानों को पहचान दिलवाने के लिये वहां पर भी
कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। उधर झांसा रोड़ पर स्थित भद्रकाली
मंदिर में इस दौरान श्रद्धालुओं की विशेष भीड़ रहती है। यहां के बारे में
मान्यता है कि महाभारत युद्ध के दौरान भगवान कृष्ण ने यहां पर अश्व दान
किये थे जो प्रथा आज तक चली आ रही है।

कुरुक्षेत्र उत्सव कब और कैसे?
कुरुक्षेत्र उत्सव- गीता जयंती समारोह का आयोजन 1989 के बाद से उत्तर
क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला, सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग और
हरियाणा पर्यटन विभाग के साथ सामूहिक रूप से कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड के
सहयोग से प्रति वर्ष किया जाता है। आरम्भ मे इस आयोजन में लोकसम्पर्क
विभाग व शिक्षा विभाग की टीमें ही सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करती थी,
लेकिन धीरे- धीरे यह उत्सव फैलाव पाता गया। 1999 में हरियाणा के तत्कालीन
राज्यपाल महावीर प्रसाद जो कि कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड के अध्यक्ष भी थे,
व केद्रीय प्रयटन मंत्री जगमोहन के प्रयासों और सरकार के सहयोग से यह
समारोह विशाल रूप धारण कर गया। एक दौर ऐसा आया जब इसे महाभारत उत्सव का
नाम देने का प्रयास किया गया, लेकिन व्यापक नाकारात्मक प्रतिक्रियाओं के
कारण वह नहीं हो सका। वर्ष 2002 के बाद इसमें नए आयाम लेकर आया शिल्प
मेला जिसने विशेष पहचान दिलवाने का काम किया। यह पांच दिवसीय मेला भी इस
उत्सव का प्रमुख आकर्षण बन चुका है। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए 2003
के बाद यह दस दिन का कर दिया गया। दुर्भाग्य की बात है कि उसके बाद से
धीरे धीरे यह उत्सव सिमटता गया और किसी जिला स्तरीय समारोह की तरह रह
गया। बाहर से दर्शक आने रुक सा गए। हालांकि पूरे प्रदेश से डीआरडीए के
माध्यम से शिल्पकारों के आने से यह प्रदेश स्तरीय होने का आभास सा करवाता
रहा।


सरस मेला ला सकता है राष्ट्रीय पहचान
पवन सौन्टी

इस बार समारोह में एक नया अध्याय जुडऩे जा रहा है जिसे नाम दिया जा रहा
है सरस मेले का। अतिरिक्त उपायुक्त सुमेधा कटारिया के अनुसार इस मेले में
देश के कोने कोने से शिल्पकार भाग लेंगे। पूरे देश की जिला ग्रामीण विकास
ऐजेंसियां इस मेले में अपनी झलक दिखाऐंगी। इसके माध्य से पूरे देश के
हुनर, कला, पारमपरिक हस्तकला, काष्ठ कला, शिल्प, चित्रकारी, नक्काशी व
कपड़ा रंगने जैसी कलाओं का प्रदर्शन व लोक कलाओं का प्रदर्शन भी इस मेले
में होगा। इसके साथ ही प्रदेश के विकास की झांकी को लेकर राज्य स्तरीय
प्रदर्शनी भी हरियाणा के विकास की मुंहबोलती तस्वीर देगी।
दूरदर्शन से भी दिखेगी कुरुक्षेत्र की झांकी
हरियाणा के हिसार स्थित दूरदर्शन केंद्र द्वारा इस समारोह के दौरान दो
डाक्यूमैंटरी फिल्मों का भी प्रसारण किया जाएगा जो कुरुक्षेत्र के बारे
में दर्शकों को व्यापक जानकारी देंंगी। जाने माने लेखक व कुरुक्षेत्र के
सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी देवराज सिरोहीवाल के अनुसार उनके द्वारा
लिखित सिंधुवन आदी धाम डाक्यूमैंटरी का प्रसारण समारोह के पहले दिन 2
दिसम्बर को होगा व आस्था का प्रतीक कुरुक्षेत्र का प्रसारण 6 दिसम्बर को
होगा।

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