हरियाणा सरकार के आंकड़े भी बताते हैं किसानों को
हो रहा भारी नुक्सान
पवन सौन्टी/कुरुक्षेत्र
जन संचार माध्यम ढिंढोरा पीट-पीट कर थक चुके हैं कि देश का पेट पालने वाला धरतीपुत्र
खुद भूखों मरने को मजबूर है, लेकिन सराकर में बैठे उसके कथित पैरोकार इस बात को उतनी ही मजबूती
से दबाने का प्रयास करते हैं। आज भी देश में किसान की पैरवी करने वाला कोई नजर नहीं
आता। यही कारण है कि सराकरों के आंकड़े बताते हैं कि किसानों की फसल उत्पादन में भारी
लागत आ रही है, बावजूद उसके देश की राजधानी में बैठे उनके नीति निर्धारक किसान का गला दबाने की
फिराक में ही रहते हैं।
इसका सीधा प्रभाव रहता है दो तिहाई आबादी पर चाहे वह किसान
है या खेतीहर मजदूर। ताजा मौसम यानि गेहूं पर ही ध्यान दिया जाए तो हरियाणा सरकार का
कृषि विभाग इस वर्ष गेहूं की प्रति क्विंटल लागत 1613 रूपये आंक चुका है। इसी को आधार
बनाकर केंद्र सरकार से हरियाणा सरकार ने मूल्य मांगा था 1650 रूपये प्रति क्विंटल। मजेदार बात
यह रही कि केंद्र सराकार की ओर से गठित कृषि जिनस मूल्य निर्धारण आयोग ने इसकी मांग
की 1285 रूपये
प्रति क्विंटल और कथित किसान हितैषी केंद्र सरकार ने मूल्य दिया मात्र 1350 रूपये प्रति क्विंटल।
अब देखिये कि हरियाणा सरकार के आंकलन को आधार बनाकर किसान को कितना घाटा हुआ। सरकार
के द्वारा आंकलित लागत मूल्य पर ही बेचारे किसान को 263 रूपये प्रति क्विंटल का घाटा हो
गया। यह घाटा मात्र इतना ही नहीं है, अपितु प्रति एकड़ पर तो वास्तव में यह बहुत भारी घाटा
बनता है। अगर प्रति एकड़ आंकलन करें तो 20 क्विंटल प्रति एकड़ उत्पादन पर यह घाटा 5260 रूपये बैठता है। इस वर्ष
उत्पादन में भारी कमी के कारण यह घाटा बढक़र 12410 रूपये प्रति एकड़ हो गया है,
क्यों कि इस बार किसानों
को औसतन 5 क्विंटल
प्रति एकड़ उत्पादन कम पड़ रहा है। अकेले गेहूं में ही नहीं अपितु कमोबेश सभी फसलों
में किसानों को जान बूझकर सरकारों द्वारा चपत लगाई जा रही है। उधर किसान का सबसे बढ़ा
हितैषी होने का दावा करने वाले हरियाणा के मुख्यमंत्री चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी
मात्र केंद्र से उच्च दामों की मांग रख कर ही पल्ला झाड़ लेते हैं। उसके बाद किसानों
के चीखने चिल्लाने को इस कदर नजर अंदाज किया जाता है कि उनकी बोनस की मांग को भी अनसुना
कर दिया जाता है।
एक व्यापारी भी स्वंय अपने
उत्पाद की लागत का आंकलन करके लाभकारी मूल्य तय करता है, लेकिन किसान के लिये उसके उलट सराकर
नुक्सान दायक मूल्य तय करती है। यह मामला कोई दो-चार सालों से चला नहीं आ रहा अपितु
दशकों पुरानी यह दर्दनाक कथा हर वर्ष नए सिरे से फिर लिखी जाती है। अगर हरियाणा सरकार
द्वारा वैबसाईट पर 1995-96 से लेकर अब तक उपलब्ध आंकड़ों पर नजर डालें तो बाजरा और कपास
को छोडक़र यह घाटे का कारोबार लगातार आज तक चला आ रहा है। बाजरा में तो केवल इसी वर्ष
हरियाणा सरकार के आंकलन 1014 रूपये प्रति क्विं टल से बढक़र केंद्र सरकार ने 1175 रूपये प्रति क्विंटल भाव
दिया है। कपास में लाभकारी मूल्य का सिलसिला 2006-2007 से देखने को मिलता है। कपास के लिये
इस वर्ष का अनुमानित मूल्य 3242 रूपये प्रति क्विंटल है जबकि केंद्र द्वारा इसका मूल्य 3900 रूपये प्रति क्विंटल दिया
गया है। इनके अलावा गेहूं, चना, जौं, तेलिय फसलें, धान व मक्का आदि सभी फसलों के हरियाणा सरकार द्वारा अनुमानित
भावों व केंद्र द्वारा दिये गए भावों में जमीन आसमान का अंतर रहा है। इतना कुछ होने
के बावजूद चाहे किसी भी दल की सरकार हरियाणा में रही हो, किसी ने भी इस ओर साकारात्मक कदम
नहीं उठाए। आज के दौर में तो हरियाणा सरकार खुद को किसान हितैषी होने के दावों को लेकर
प्रचार के लिये तो अरबों रूपया पानी की तरह बहा सकती है, लेकिन उस किसान को वास्तव में अपनी
ओर से उसकी जिनस पर बोनस तक नहीं देती।
लागत निर्धारण में किसान की मजदूरी भी मात्र 179 रूपये
हरियाणा सरकार के कृषि विभाग द्वारा लागत निर्धारण हेतू बनाए गए आंकड़ों में भी
किसान की मेहनत का मोल सही नहीं आंका जाता। मनरेगा के तहत हरियाणा में मजदूरी 214 रूपये प्रति दिन है जबकि
कृषि विभाग लागत मूल्य निधारित करते समय 2012-13 के लिये किसान की मजदूरी को मात्र
179 रूपये प्रति
दिन मान कर चल रहा है। भारतीय किसान यूनियन के प्रैस सचिव राकेश कुमार द्वारा सूचना
का अधिकार के तहत मांगी गई सूचना पर उपलब्ध करवाए गए आंकड़ों के अनुसार अगर गत वर्ष
की धान लागत का आंकलन देखें तो बहुत ही खामियां नजर आती हैं। उसके बावजूद सरकार ने
धान की फसल पर 1566 रूपये प्रति क्विंटल लागत मानी थी और केंद्र ने दिया था मात्र 1250 रूपये प्रति क्विंटल का
भाव। अगर इन आंकड़ों पर गहनता से नजर दौड़ाई जाऐ तो इन आंकड़ों में किसान की लागत का
बहुत ही कम मूल्यांकन किया गया है। धान रोपाई की मजदूरी प्रति हैक्टेयर मात्र 1790 रूपये आंकी गई है जबकि गत
वर्ष प्रति एकड़ मजदूरी 1600 से 2000 रूपये तक थी। जोकि हैक्टेयर के हिसाब से सरकारी आंकलन का ढाई
गुणा तक बनती है। खेत का किराया धान के लिये 22000 रूपये प्रति हैक्टेयर आंका गया है
जबकि पिछले कई वर्षों से प्रति वर्ष औसतन जमीन का ठेका 75000 रूपये प्रति हैक्टेयर तक जा रहा
है जिसमेेंं से आधे वक्त यानि 6 महीने की धान की फसल होती है। यही नहीं हास्यप्रद बात देखिये
कि मंडी में अनाज ले जाने यानि ट्रांसपोर्टेशन चार्जेज के नाम पर मात्र 25 रूपये प्रति हैक्टेयर आंके
गए हैं जबकि अपना ट्रैक्टर ही मंडी तक जाने में 300 रूपये का डीजल पीता है। अगर किराये
पर ढुलाई करवाई जाए तो 600 रूपये से कम दाम पर कोई ट्राली वाला किसान की फसल को 5-7 किलोमीटर दूर की मंडी में
नहीं ले जाता। इन आंकड़ों में ऐसे बहुत से घाटे होने के बावजूद भी आज तक किसान को हरियाणा
सरकार के आंकलन के अनुरूप ही दाम नहीं मिल पा रहे तो आम आदमी भी अंदाजा लगा सकता है
कि किसान किन कठिन परिस्थितियों में गुजारा करके दुनिया का पेट पाल रहा है। धन्य है
भारत माँ का लाडला बेटा धरतीपुत्र जिसकी हाड तोड़ मेहनत से सबके चुल्हे तो जलतें हैं,
लेकिन उसके चुल्हे
को जलता रखने के लिये कोई प्रयास नहीं किया जाता।
सराकरी आंकड़ों की कहानी उन्ही की जुबानी
हरियाणा सरकार के कृषि विभाग द्वारा लागत मूल्य आंकलन व केंद्र द्वारा मूल्य निर्धारण
के बीच जमीन आसमान का अंतर दिखाते हैं सरकारी आंकड़े। जी हां, 1955-56 में हरियाणा में गेहूं की
अनुमानित लागत 455 रूपये थी जबकि मूल्य मिला था 380 रूपये प्रति क्विंटल। इसी वर्ष चने की अनुमानित लागत
थी 875 रूपये
जबकि मूल्य मिला था 700 रूपये प्रति क्विंटल। जौं की अनुमानित लागत थी 399 रूपये जबकि मूल्य मिला था
295 रूपये प्रति
क्विंटल। इसी प्रकार 1996-97 में धान की अनुमानित लागत थी 490 रूपये प्रति क्विंटल जबकि मूल्य मिला
था 380-415 रूपये प्रति क्विंटल। इसी वर्ष बाजरा की अनुमानित लागत थी 400 रूपये जबकि मूल्य मिला था
310 रूपये प्रति
क्विंटल। यह तो कुछ उदाहरण मात्र हैं। आज तक किसान के साथ इसी प्रकार लूटपाट होती आई
है। सरकारें आंकलन तो करवाती हैं, लेकिन फिर आंख बंद करके किसान व उसके साथी रहे खेतीहर मजदूर
के शोषण का खाका तैयार करने बैठती हैं ताकि देश की दो तिहाई आबाद सत्ता में बैठे इन
भूखे लुटेरों के बराबर न आ खड़ी हो।
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