स्वामी विवेकानन्द जी की 150वीं जयंती पर विशेष रामेंदर सिंह ( कुरुक्षेत्र)
इस ध्रातल पर महापुरुषों का जन्म बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के लिए होता
है। उनके जीवन का एकमात्रा उद्देश्य ‘आत्मनो मोक्षार्थ जग(ितायच’ के लिए होता है। पीड़ित मानवता के दुःखों को दूर कर जगत को शिव स्वरूप करने हेतु
भारतवर्ष में अनेकानेक महापुरुष अवतरित हुए, उनमें स्वामी विवेकानन्द का नाम अत्यन्त
ही आदर से लिया जाता है। स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 ई॰ पौष संक्रान्ति कृष्णा सप्तमी सम्वत् 1920 विक्रमी को मकर संक्रान्ति के दिन
कोलकाता नगर के सिमूलिया पल्ली मोहल्ले में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री विश्वनाथ
दत्त तथा माता का नाम श्रीमती भुवनेश्वरी देवी था। बचपन में इनका नाम नरेन्द्र था।
माँ विवेक दो, वैराग्य दो
परिवार में आर्थिक संकट से जूझते हुए एक
बार नरेन्द्र नाथ ने दक्षिणेश्वर जाकर श्रीरामकृष्ण देव से परिवार की सुख सुविधा हेतु
माँ काली से प्रार्थना करने का आग्रह किया। वह बोले बेटा मैं ऐसी याचना तो नहीं कर
सकता। पर तुम स्वयं ही जाकर माँ से याचना क्यों नहीं कर लेते? अच्छा, आज मंगलवार है, आज रात तुम काली माता के मन्दिर में जाकर, साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर जो चाहे
वरदान मांगो। वह अवश्यमेव प्राप्त होगा। मन्दिर में पहुँच कर जब नरेन्द्रनाथ ने प्रतिमा
की ओर दृष्टि लगाई तो उन्हें देवी काली माता वास्तव में सजीव और सचेतन लगी। मानो देवी
प्रेम और सौंदर्य का अखण्ड निर्झर! वे प्रेम और भक्ति की उमड़ती लहर से भर गए और भाव
विभोर होकर प्रार्थना की,
‘‘माँ मुझे विवेक दो, वैराग्य दो, मुझे ज्ञान और भक्ति दो। मुझे तेरा अबाध दर्शन होता रहे ऐसा आशीर्वाद दो।’’ परन्तु ध्न माँगना वे भूल गये थे। लौटते समय उनके मन में एक अपूर्व शान्ति विराज
रही थी। ठाकुर के कमरे में पहुँचने पर जब उन्हांेने पूछा - ‘‘क्यों रे, माँ से गृहस्थी का अभाव दूर करने की प्रार्थना की है न?’’ तो नरेन्द्र चौंककर बोले - ‘‘नहीं महाराज, मैं तो भूल गया था।’’
उन्होंने कहा - ‘‘जा जा, पिफर प्रार्थना कर आ।’’
नरेन्द्र गये परन्तु पुनः अपना उद्देश्य भूल गये। तीसरी बार
भी ऐसा ही हुआ। तभी अचानक नरेन्द्र के मन में आया कि निश्चय ही यह ठाकुर की लीला है, उन्होंने ही जगदम्बा से मेरी सांसारिक प्रार्थना का विस्मरण करा दिया है, सम्भवतः वे चाहते हैं कि मैं न्यागमय जीवन बिताऊँ। अतः उन्होंने श्रीरामकृष्ण से
अपने परिवार के लिये कुछ कर देने का अनुरोध् किया। ठाकुर ने उन्हें समझाया कि सांसारिक
सुखभोग उनके भाग्य में नहीं है। तथापि उन्होंने दिलासा देते हुए कहा कि उनके परिवार
को साधरण अन्न-वस्त्रा का अभाव नहीं रहेगा।
उपर्युक्त घटना नरेन्द्र के मन पर गहरी छाप
छोड़ गयी। इससे उन्हें ईश्वर तथा उनके जागतिक कार्यों के बारे में एक नवीन प्रकाश की
उपलब्ध् िहुई, जिसके पफलस्वरूप उनका आध्यात्मिक जीवन भी समृ( हुआ।
विशाल वटवृक्ष बनो
1884 ई॰ में नरेन्द्र के पिताश्री का निधन हो गया। इसके पश्चात् उन्हें बहुत ही आर्थिक
संकट का सामना करना पड़ा। इस कठिन परिस्थिति में भी उनके विवेक और वैराग्य में कोई कमी
नहीं आई। सन् 1885 ई॰ में श्री रामकृष्ण कंठ रोग ;कैंसरद्ध से ग्रसित हो गए। उन्हें चिकित्सा
के लिए श्याम पुकुर नगर के पश्चात् काशीपुर लाया गया। यहाँ पर ही एक किराए के मकान
में नरेन्द्रनाथ अपने गुरु भाइयों के साथ श्रीरामकृष्ण परमहंस जी की सेवा और तीव्र
भक्ति में डूब गए। जब उन्होंने श्रीरामकृष्ण से शुकदेव की तरह निर्विकल्प समाधि की
इच्छा की तो उन्होंने कहा,
‘‘छिः नरेन, तुम केवल अपनी मुक्ति की इच्छा करते
हो, तुम्हें तो विशालवटवृक्ष की तरह होना पड़ेगा जिसकी छाया में समस्त पृथ्वी के मनुष्य
शान्ति लाभ करेंगे।’’ परन्तु एक दिन काशीपुर में उनकी कृपा से ही जब नरेन्द्र नाथ की आध्यात्मिक जीवन
की सर्वोच्च उपलब्धि निर्विकल्प समाधि प्राप्ति की तथा समाधि भंग होने पर श्री रामकृष्ण
जी ने कहा था कि इस उपलब्धि की कुन्जी वे अपने पास ही रखेंगे। ‘‘जगत के प्रति जब नरेन्द्रनाथ के कर्त्तव्यों की इतिश्री होगी तो वे स्वयं ही इस
उपलब्धि का द्वार खोल देंगे।’’
जादूगर नरेन्द्र
नरेन जब लगभग 11 वर्ष का था, एक बार ‘ब्रिटिश-मैन-ऑपफ-वार’
;एक यु(पोतद्ध कोलकाता के एक बन्दरगाह पर आया था। बहुत
से लोग उस जहाज को देखने के लिए गये थे तथा नरेन और उसके मित्रा भी उसे देखना चाहते
थे। इस हेतु एक विशिष्ट ब्रिटिश अध्किारी द्वारा एक पास लेना आवश्यक होता था। नरेन
ने पफार्म भरा एवं उस भवन की ओर गया, जहां वह अध्किारी बैठता था। बहुत-से
लोग भीतर जा रहे थे, परन्तु दरवान ने नरेन को बहुत ही छोटा समझकर उसे भीतर जाने से रोक दिया। नरेन बाहर
खड़ा सोचने लगा कि अब क्या किया जाए! उसने देखा सभी लोग पहली मंजिल के एक कमरे में जा
रहे हैं। उसने सोचा कि वहाँ जाने का कोई दूसरा मार्ग अवश्य ही होगा। इसलिए वह भवन के
पिछले हिस्से में गया जहाँ उसे सीढ़ियाँ दिखाई दीं। वहाँ पर कोई दरवान न था, इसलिए वह सीध्े पहली मंजिल पर पहुँच गया। एक परदे को सरकाने पर उसे कुछ लोग इन्तजार
करते दिखे। वह उस कतार में सम्मिलित हो गया और ब्रिटिश अध्किारी ने बिना प्रश्न किये
अपने हस्ताक्षर कर दिये। नरेन उसी मुख्य प्रवेश द्वार से बाहर आ गया। दरवान उसे देखकर
आश्चर्य में पड़ गया। उसने पूछा, ‘‘तुम भीतर कैसे पहुँचे?’’ नरेन ने उत्तर दिया, ‘‘अच्छा, तुम्हें मालूम नहीं कि मैं एक जादूगर हूँ?’’
स्वामी विवेकानन्द - संक्षिप्त जीवन वृत्त
जन्म - 1863, 12 जनवरी, मकर संक्रान्ति ;पौष कृष्ण सप्तमीद्ध
जन्म स्थान - सिमुलियापल्ली, कोलकाता, नाम - नरेन्द्र नाथ दत्त
माता-पिता - श्रीमती भुवनेश्वरी देवी
एवं श्री विश्वनाथ दत्त
1881 - श्रीरामकृष्ण देव का प्रथम दर्शन
1884 - बी.ए. परीक्षा दी। इसी वर्ष पिता की मृत्यु।
1886 - श्रीरामकृष्ण देव की महासमाध्।ि
1887 - वराहनगर मठ ;कोलकाताद्ध में संन्यास ग्रहण।
1888 - परिव्राजक बने। भारत परिक्रमा ;चार वर्षद्ध
1892 - 25-27 दिसम्बर कन्याकुमारी-श्रीपादशिला पर ध्यान।
1893 - 31 मई, विश्वर्ध्म सभा, अमेरिका के लिए प्रस्थान।
1893 - 11 सितंबर, शिकागो महासभा में प्रथम ऐतिहासिक भाषण।
1897 - 15 जनवरी-भारत आगमन एवं विशाल स्वागत, भाषण।
1897 - 1 मई ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना।
1898 - कोलकाता में ‘निवेदिता बालिका विद्यालय’ की स्थापना।
1898 - 9 दिसंबर ‘बेलुड मठ’ की स्थापना।
1899 - द्वितीय बार पश्चिम की यात्रा।
1900 - 9 दिसम्बर भारत में वापसी।
1901 - 18 मार्च, अपनी माँ को लेकर पूर्व बंगाल-ढाका एवं असम-कामाख्या, शिलांग भ्रमण।
1902 - जनवरी में बोध्गया दर्शन करके काशीधम यात्रा।
1902 - बेलुड में आगमन, श्रीरामकृष्ण जन्मोत्सव मनाया।
1902 - 4 जुलाई, शुक्रवार रात्रि 9.10 को बेलुड मठ में महासमाधि।
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