पंजाब की लोक संस्कृति का अक्स है लोहड़ी का त्यौहार
शाहाबाद मारकंडा-सुरेंद्रपाल वधावन
हड़तालों घोटालों तनावों और कुंठाओं के चक्रव्यूह
में फंसे इस देश के आम इंसान को आज भी हमारे पर्व और त्यौहार भले ही दो पल के लिए हो, कुछ सुकून और राहत तो प्रदान करते हीं हैं। -कितने प्यारे
लोग थे जिनको अपने $गमों से $फुरसत थी- फैज़ साहिब के इस अशआर की पंक्ति आज महज़ एक याद महसूस होती है कल की-
जब न तो $गम-ए-रोज़गार
होता था और न ही होता था $गम-ए-इश्क, उस समय इंसानी रिश्तों में जीता आदमी मनोरंजन के जो तरीके अपनाता
था उनमें पर्व और त्यौहारों का अपना विशेष महत्व था। त्यौहार आज की भांति मात्र औपचारिकता
निभाने के लिए नहीं होते थे अपितु लोग त्यौहारों में जीते थे। आज टी.वी के रंगों से
चुंधिआए और जीवन की भागमभाम में मसरू$फ लोगों के पास इतना समय
कहां है कि वह इन त्यौहारों को जी भर के जी पाएं। हमारी संस्कृति वास्तव में त्यौहारों
की ही संस्कृति रही है। जाड़े के मौसम में आने वाला लोहड़ी त्यौहार विशेषकर पंजाब की
लोकसंस्कृति से जुड़ा एक ऐसा पर्व है जो सामान्य संबंधों को घनिष्ठता तो प्रदान करता
ही है और साथ ही बेरस और ठंडे पड़ रहे रिश्तों को ताज़गी का अहसास भी देता है। लोहड़ी
को तिलोड़ी भी कहा जाता था जिसका मतलब है कि सर्दी के इस मौसम में तिल और गुड़ का सेवन
किया जाना चाहिए क्योंकि यह दोनों चीज़ें गर्माहट की तासीर लिए हैं।
लोहड़ी पर्व से जुड़ी कथा के अनुसार लद्धी नामक महिला के पुत्र का नाम दूल्ला था जो बादशाह अकबर का बा$गी था। यह बात काबिल-ए-जि़क्र
है कि लद्धी अकबर के शहजादे की फ्रॅासटर मदर यानि के दूध पिलाने वाली माता थी। लद्धी
का पुत्र दुल्ला अमीरों को लूटता था और ग्ररीबों और बेबसों की मदद करता था इस कारण
वह आम लोगों में उसकी छवि एक नायक की भांति थी। एक बार दुल्ले ने बाप बन कर एक ब्राहमण
की दो कन्यायों का विवाह करा दिया। इससे लोगों के मन में उसके प्रति अथाह श्रद्धा उमड़
पड़ी। इस से एक लोकगीत का चलन शुरु हुआ और यह गीत लोकपरंपरा के रुप में विकसित हो गया।
यह गीत आज भी लोहड़ी के अवसर पर गाया जाता है-सुंदर मुंदरिए -हो, तेरा कौन विचारा -हो,
दुल्ला भट्टी वाला-हो,
दुल्ले दी धी विआही-हा,े सेर शक्कर पाई-हो,
कुड़ी दे ज़ेबे पाई-हो
----आदि। इसी तरह बालिकाओं के लोहड़ी मांगने का गीत-हुल्ले नी माए,हुल्ले,दो बेरी पत्र झुल्ेा- दो
झुल पइयां $खजूरां ,$खजूरां सुटिया मेवा, उस लाल दे घर जनेवा, उस लाल दी वहुटी निक्की जो खावे चूरी
कुट्टी -कुट-कुट भरिया थाल -बुआ एक ननाना चार
-देंदी एं ते दे काले कुत्ते नूं वी दे- काला कुत्ता दे दुआवां तेरियां जीवण
मझियां गाइयां, हमारी विस्मृत हो रही लोक संस्कृति का अमूल्य हिस्सा है।
---------सुरेंद्रपाल वधावन शाहाबाद मारकंडा
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