1996 में लिखी गई मेरी इस कविता की आज प्रासंगिता है या नहीं ये तो मैं नहीं जनता
लेकिन आप सब के विचार इस पर अपेक्षित हैं...पवन सोंटी “पूनिया”
होली के रंग
होली खेल रहे हैं वो सब
आज गले मिल कर लोगों से,
जिनको आ गया इस दुनिया में
लोगों संग हंस खेल कर जीना।
गीता और सुनीता तुम सब,
होली अपने ढंग से खेलो,
पवन जाट को होली के
रंगों से ही आता है पसीना।
*
कृष्ण जी भी तो खेले थे कभी
बरसाने में जा कर होली,
साथ चले थे उनके तब
सब गोकुल के सखा ताने सीना।
उसी याद को नहीं भूले हैं
उन नगरों के लोग आज तक,
खेलते हैं वो वैसी ही होली
जब भी आता है फागुन का महीना।
* * *
खेली होली गीता ने भी
आज तनूजा के संग मिल कर,
ऐसे रंग फैंके हैं उसने
मुश्किल कर दिया मेरा जीना।
मेरे सभी सखा तुम आओ
खेलो इन संग ऐसी होली,
ऐसे रंग फैंको तुम इन पर
याद रहे फागुन का महीना।
* * *
बम्बई में तो हेमा जी के
भीग चुके हैं लहंगा चोली,
फिर भी फडक़ रहा है अब तक
धर्मेंद्र्र्र कर चौड़ सीना।
बुरी तरह से भीगेे हैं रंग में
अमिताभ और जया भादुड़ी,
अब भी लिये रंग की पिचकारी
भाग रहे हैं शत्रुघन सिन्हा।
* * *
मुझे तो देखो अपने ढंग से
मैं भी होली मना रहा हूँ,
स्याही की इन कुछ बूंदों से
आप सभी को भिगो रहा हूँ।
और चुटकी भर ले गुलाल
अपने मुंह पर आप लगा कर,
हंसता हूँ कमरे के अंदर
आह! मैं होली मना रहा हूँ।
* * *
और देखो नेता जी कुछ अब
असली होली मना रहे हैं,
लेकर लहू भारत के जन का
एक दूजे पर लगा रहे हैं।
चारा और हवाला जैसे
सभी घोटाले खुले पड़े हैं,
फिर भी ये बेशर्म खुशी से
अपना नाटक चला रहे हैं।
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