Tuesday, December 20, 2011

नयी रचना के दो अंतरे मित्रों को समर्पित हैं. टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी .....



जो जहाँ है वो अपनी ठौर अड़े
हम ये माहौल बदलने को लड़ें

लोग आएंगे ये समझाने को
बेवजह पंगा न लो, जाने दो
यह जो ढर्रा है, यूँ न बदलेगा
एक बदला भी तो क्या कर लेगा
समझ लो वक्त की नजाकत को
छोडो यूँ अड़ने वाली आदत को
तुमको खाना नहीं तो मत खाओ
उनको खाने दो घूस, सह जाओ
चोटी वाला हो याकि चपरासी
सबके सब हैं इसके अभ्यासी
वे कहेंगे कि इसमें ढल जाओ
या गली पतली से निकल जाओ

हमको लेने होंगे संकल्प कड़े
हम ये माहौल बदलने को लड़ें

गाँव की गलियों से आवाज उठे
धन हमारा है हमसे पूछ बँटे
पञ्च -सरपंच हैं सेवक अपने
बैठकर ग्राम-संग बुनें सपने
एक भी पाई न गंवाई जाये
गाँव में लगे न कि खाई जाये
कैसे कर लेंगे वे गोरखधंधा
उठ खड़ा हो जो यहाँ हर बंदा
गाँव जागे तो दिल्ली जागेगी
फिर वो हक चौकसी से बांटेगी
आये हरकत में गाँव की संसद
ये है कविताई का अपनी मकसद

जनतंत्र के पग गाँव में भी पड़ें.
हम यूँ माहौल बदलने को लड़ें
वीरेंदर सिंह चौहान
विभागाध्यक्ष . चौधरी देवीलाल विश्यवविद्यालय  पत्रकारिता विभाग

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